परिवर्तन में प्रगति और जीवन
"स्थिरता" जड़ता का चिन्ह है और "परिवर्तन" प्रगति का । "स्थिरता" में नीरसता है, निस्तब्धता और निष्क्रियता, किंतु "परिवर्तन" नए चिंतन, नए अनुभव का पथ प्रशस्त करता है । "जीवन "प्रगतिशील" है । अस्तु उसमें "परिवर्तन" आवश्यक होता है और अनिवार्य भी ।
"प्रगतिशील" "परिवर्तन" से डरते नहीं, उसका समर्थन करते हैं और स्वागत भी । 5लक "गतिशील" हैं । इससे उनका "चुम्बकत्व" स्थिर रहता और उसके सहारे उनका मध्यवर्ती सहकार बना रहता है । यदि वे निष्क्रिय बने रहते तो अपनी ऊर्जा गँवा बैठते । "जो आगे नहीं बढ़ता, वह "स्थिर" भी नहीं रह सकता । "स्थिरता" पर संकट आते ही, विकल्प "विनाश" ही रह जाता है । अस्तु जीवन को गतिशील रहना पड़ता है । जो निर्जीव है, वह भी गतिहीन नहीं है ।
युग बदलते हैं, परिवर्तन क्रम में आशा और निराशा के अवसर आते और चले जाते हैं । "रात्रि" और "दिन", "स्वप्न" और "जाग्रति" जीवन" और "मरण" "शीत" और "ग्रीष्म" "हानि" और लाभ "संयोग'" और "वियोग" का अनुभव लगता तो परस्पर विरोधी है, पर अंततः वे एक-दूसरे के साथ गुँथे रहते हैं और दोहरे रसास्वादन का आनंद लेते हैं । "ऋण" और "धन की धाराओं का मिलन ही बिजली के सामर्थ्यवान प्रवाह को जन्म देता है ।"
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