अधिकांश क्षमता तो भव बन्धनों में ही पड़ी जकड़ी रहती है। भ्ज्ञव बन्धन क्या है? व्यामोह ही भव बन्धन है। भव बन्धनों में पड़ा हुआ प्राणी कराहता रहता है और हाथ पैर बंधे होने के कारण प्रगति पथ पर बढ़ सकने में असमर्थ रहता है। व्यामोह का माया कहते हैं।माया का अर्थ है नशे जैसी खुमारी जिसमें एक विशेष प्रकार की मस्ती होती है। साथ ही अपनी मूल स्थिति की विस्मृति भी जुड़ी रहती है। संक्षेप में विस्मृति और मस्ती के समन्वय को नशे की पिनक कहा जा सकता है, चेतना की इसी विचित्र स्थिति को माया, मूढ़ता, अविद्या, भव बन्धन आदि नामों से पुकारा जाता है।
ऐसी विडम्बना में किस कारण प्राणी बंधता, फंसता है? इस प्रश्न पर प्रकाश डालते हुए आत्म दृष्टाओं ने विषयवती वृत्ति को इसका दोषी बताया है। विषयवती वृत्ति की प्रबलता को बन्धन का मूल कारण बताते हुये महर्षि पातंजलि ने योग दर्शन के कुछ सूत्रों में वस्तुस्थिति पर प्रकाश डाला है।
विषयवती वा प्रवृत्तित्पत्रा मनसः स्थिति निबंधिनि ।
—यो. द. 1-35
सत्व पुरुषायोरत्यन्ता संकीर्णयोः प्रत्यया विशेषो भोगः । परार्धात्स्वार्थ संयतात्पुरुषा ज्ञानम् ।
—यो. द. 3-35
ततः प्रतिम श्रावण वेदनादर्शी स्वाद वार्ता जायन्ते ।
—यो. द. 3-36
उपरोक्त सूत्रीं में यह बताने का प्रयत्न किया गया है कि शारीरिक विषय विकारों में आसक्ति बढ़ जाने से जीव अपनी मूल स्थिति को भूल जाता है और उन रसास्वादनों में निमग्न होकर भव बन्धनों में बंधता है।
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