"प्रगति" और "अवगति" का स्वरूप समझने में भूल होते रहने के कारण ही मनुष्य भ्रम में पड़ते, पछताते और दुसह दु:ख सहते हैं । "प्रगति" की परिभाषा को "बलिष्ठता," "शिक्षा," "संपदा" प्राप्त करने तक सीमित समझा जाता है । इस दिशा में जो जितना प्रयत्न करता है, वह उतना "पुरुषार्थी" कहलाता है और जो जितना सफल होता है वह उतना "भाग्यशाली" माना जाता है ।
वस्तुओं और सामर्थ्यों का अपना महत्व है, पर उन उपलब्धियों का "सत्प्रयोजन" में प्रयोग हो सकने पर ही उनके द्वारा वास्तविक प्रगति का लाभ मिलता है । प्रगति की वास्तविकता व्यक्तित्व की गरिमा के साथ जुड़ी हुई है । मनुष्य का "चिंतन", "चरित्र" एवं "लक्ष्य" ही वह आधार है, जिस पर व्यक्तित्व की गरिमा टिकी हुई है । यदि इस केंद्र बिंदु पर निकृष्टता आधिपत्य कर ले तो समस्त उपलब्धियाँ हेय प्रयोजन के लिए ही प्रयुक्त होती रहेंगी और फलत: पाप पतन और त्रास- विनाश का संकट भी उत्पन्न होता रहेगा । वह प्रगति कैसी जिसमें जलने और जलाने का, गिरने और गिराने का ही उपक्रम चलता रहे ।
प्रगति का अर्थ है- "उर्ध्वगमन," "उत्कर्ष," "अभ्युदय ।" यह विभूतियाँ अंत:क्षेत्र की है । दृष्टिकोण और लक्ष्य ऊँचा रहने पर इच्छा और आकांक्षा का स्तर ऊंँचा उठता है । आत्म गौरव का ध्यान रहता है । अपना मूल्य गिरने ना पाए यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है, वह उतना ही प्रगतिशील है ।
No comments:
Post a Comment