Thursday, 7 October 2021

प्रगति तो हो, पर उत्कृष्टता की दिशा में

"प्रगति"  और  "अवगति" का स्वरूप समझने में भूल होते रहने के कारण ही मनुष्य भ्रम में पड़ते,  पछताते  और दुसह  दु:ख सहते हैं । "प्रगति" की परिभाषा को "बलिष्ठता," "शिक्षा," "संपदा" प्राप्त करने तक सीमित समझा जाता है । इस दिशा में जो जितना प्रयत्न करता है, वह उतना "पुरुषार्थी" कहलाता है और जो जितना सफल होता है वह उतना "भाग्यशाली" माना जाता है ।

वस्तुओं और सामर्थ्यों  का अपना महत्व है,  पर उन उपलब्धियों का "सत्प्रयोजन" में प्रयोग हो सकने पर ही उनके द्वारा वास्तविक प्रगति का लाभ मिलता है । प्रगति की वास्तविकता व्यक्तित्व की गरिमा के साथ जुड़ी हुई है । मनुष्य का "चिंतन",  "चरित्र" एवं "लक्ष्य" ही वह आधार है, जिस पर व्यक्तित्व की गरिमा टिकी हुई है । यदि इस केंद्र बिंदु पर निकृष्टता आधिपत्य  कर ले तो समस्त उपलब्धियाँ हेय  प्रयोजन के लिए ही प्रयुक्त होती रहेंगी और फलत: पाप पतन और त्रास- विनाश का संकट भी उत्पन्न होता रहेगा । वह प्रगति कैसी जिसमें जलने और जलाने का, गिरने और गिराने का ही उपक्रम चलता रहे ।

प्रगति का अर्थ है- "उर्ध्वगमन,"  "उत्कर्ष," "अभ्युदय ।"   यह विभूतियाँ  अंत:क्षेत्र की है । दृष्टिकोण और लक्ष्य ऊँचा  रहने पर इच्छा और आकांक्षा का स्तर ऊंँचा उठता है ।  आत्म गौरव का ध्यान रहता है । अपना मूल्य गिरने ना पाए यह सतर्कता जिसमें जितनी पाई जाती है,  वह उतना ही प्रगतिशील है ।

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