Friday, 21 October 2016

कल्प-वृक्ष की कहानीः उत्तर प्रदेश के बस्ती में होने की पुष्टि

कल्प-वृक्ष की कहानीः उत्तर प्रदेश के बस्ती में होने की पुष्टि
डा. राधेश्याम द्विवेदी
कल्प-वृक्ष का अर्थ पुराणानुसार स्वर्ग का एक वृक्ष जिसकी छाया में पहुँचते ही सब कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। लाक्षणिक अर्थ में ऐसा व्यक्ति जो दूसरों की बहुत उदारतापूर्वक सहायता करता हो कल्प-वृक्ष माना जाता है। यह बहुत बड़ा दानी वृक्ष है। यह एक प्रकार का वृक्ष जो बहुत अधिक ऊँचा, घेरदार और दीर्घजीवी होता है।
दुर्वाषा ऋषि का शापः- एक बार की बात है शिवजी के दर्शनों के लिए ऋषि अपने शिष्यों के साथ कैलाश जा रहे थे। मार्ग में उन्हें देवराज इन्द्र मिले। इन्द्र ने दुर्वासा ऋषि और उनके शिष्यों को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। तब दुर्वासा ने इन्द्र को आर्शीर्वाद देकर विष्णु भगवान का पारिजात पुष्प् प्रदान किया। इन्द्रासन के गर्व में चूर इन्द्र ने उस पुष्प् को अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर रख दिया। उस पुष्प का स्पर्श होते ही ऐरावत सहसा विष्णु भगवान के समान तेजस्वी हो गया। उसने इन्द्र का परित्याग कर दिया और उस दिव्य पुष्प को कुचलते हुए वन की ओर चला गया। इन्द्र द्वारा भगवान विष्णु के पुष्प का तिरस्कार होते देखकर दुर्वाषा ऋषि के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। दुर्वासा मुनि के शाप के फलस्वरूप लक्ष्मी उसी क्षण स्वर्गलोक को छोड़कर अदृश्य हो गई। लक्ष्मी के चले जाने से इन्द्र आदि देवता निर्बल और श्रीहीन हो गए। उनका वैभव लुप्त हो गया। इन्द्र को बलहीन जानकर दैत्यों ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और देवगण को पराजित करके स्वर्ग के राज्य पर अपनी परचम फहरा दिया। तब इन्द्र देवगुरू बृहस्पति और अन्य देवताओं के साथ ब्रह्याजी की सभा में उपस्थित हुए। तब ब्रह्यजी बोले-‘देवेन्द्र! भगवान विष्णु के भोगरूपी पुष्प का अपमान करने के कारण रूष्ट होकर भगवती लक्ष्मी तुम्हारे पास से चली गयी हैं। उन्हंे पुनः प्रसन्न करने के लिए तुम भगवान नारायण की कृपा -दृष्टि प्राप्त करो। उनके आशीर्वाद से तुम्हें खोया वैभव पुनः मिल जाएगा।’’
शाप मुक्ति का उपायः- इस प्रकार ब्रह्या जी ने इन्द्र को आस्वस्त किया और उन्हें लेकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे। वहाँ परब्रह्य भगवान विष्णु भगवती लक्ष्मी के साथ विराजमान थे। देवगण भगवान विष्णु की स्तुति करते हुए बोले -‘‘भगवान्! आपके श्रीचरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम    ! भगवान्! हमस ब जिस उददेश्य से आपकी शरण में आए हैं, कृपा करके आप उसे पूरा कीजिए। दुर्वाषा ऋषि के शाप के कारण माता लक्ष्मी हमसे रूठ गई हैं और दैत्यों ने हमें पराजित कर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया है। अब हम आपकी शरण में हैं, हमारी रक्षा कीजिए।’’ भगवान विष्णु त्रिकालदर्शी हैं। वे पल भर में ही देवताओं के मन की बात जान गए। तब वे देवगण से बोले-‘‘देवगण! मेरी बात ध्यानपूर्वक सुने, क्योंकि केवल यही तुम्हारे कल्याण का उपाय है। दैत्यों पर इस समय काल की विशेष कृपा है इसलिए जब तक तुम्हारे उत्कर्ष और दैत्यों के पतन का समय नहीं आता, तब तक तुम तब तुम उनसे संधि कर लो। क्षीरसागर के गर्भ में अनेक दिव्य पदार्थों के साथ-साथ अमृत भी छिपा है। उसे पीने वाले के सामने मृत्यु भी पराजित हो जाती है। इसके लिए तुम्हे समुद्र मंथन करना होगा। यह कार्य अत्यंत दुष्कर है, अतः इस कार्य में दैत्यों से सहायता लो। कूटनीति भी यही कहती है कि आवश्यकता पड़ने पर शत्रुओं को भी मित्र बना लेना चाहिए। तत्पश्चात अमृत पीकर अमर हो जाओ। तब दुष्ट दैत्य भी तुम्हारा अहित नहीं कर सकेंगे। देवगण! वे जो शर्त रखें, उसे स्वाकीर कर लें। यह बात याद रखें कि शांति से सभी कार्य बन जाते हैं, क्रोध करने से कुछ नहीं होता।’’ भगवान विष्णु के परामर्श के अनुसार इन्द्रादि देवगण दैत्यराज बलि के पास संधि का प्रस्ताव लेकर गए और उन्हें अमृत के बारे में बताकर समद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया।
समुद्र मंथन कथाः- इसी समय मेघ के समान गम्भीर स्वर में आकाशवाणी हुई-देवताओ और दैत्यो! तुम क्षीर समुद्र का मन्थन करो। इस कार्य में तुम्हारे बल की वृद्धि होगी, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को रस्सी बनाओ, फिर देवता और दैत्य मिलकर मन्थन आरम्भ करो।’ यह आकाशवाणी सुनकर दैत्य और देवता समुद्र-मन्थन के लिये उद्यत हो सुवर्ण के सदृश कान्तिमान् मन्दराचल के समीप गये। वह पर्वत सीधा, गोलाकार, बहुत मोटा और अत्यन्त प्रकाशमान था। अनेक प्रकार के रत्न उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। चन्दन, पारिजात, जायफल और चम्पा आदि भाँति-भाँति के वृक्षों से वह हरा-भरा दिखायी देता था।
पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।
चैदह रत्नों मेंः- समुद्र मंथन की मिथकीय घटना के बाद जो चैदह रत्नोः- श्री, मणि, रम्भा, वारूणी, अमिय, शंख, गजराज, धेनु, धनुष, शशि, कल्पतरू, धन्वन्तरि, विष और वाज। की प्राप्ति हुई हैं।
चार दिव्य वृक्ष मेंः-  मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आव़ाज उठ रही थी। इस बार के मंथन से देवकार्याें की सिद्धि के लिये साक्षात् कामधेनु प्रकट हुई। उन्हंे काले, श्रृेत,पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएँ घेरे हुए थीं। उस समय ़ऋषियों ने बड़े हर्ष में भरकर देवताओं और दैत्यों से कामधेनु के लिये याचना की और कहा-‘आप सब लोग मिलकर भिन्न-भिन्न गोत्रवाले ब्राह्यणों को कामधेनु सहित इन सम्पूर्ण गौओं का दान अवश्य करें।’ ऋषियों के याचना करने पर देवताओं और दैत्यों ने भगवान् शंकर की प्रसन्नता के लिये वे सब गौएँ दान कर दीं तथा यज्ञ कर्मों में भली-भाँति मन को लगाने वाले उन परम मंगलमय महात्मा ऋषियों ने उन गौओं का दान स्वीकार किया। तत्पश्चात् सब लोग बड़े जोश में आकर क्षीरसागर को मथने लगे। तब समुद्र से कल्पवृक्ष, पारिजात, आम का वृक्ष और सन्तान-ये चार दिव्य वृक्ष प्रकट हुए।
10 चमत्कारिक वस्तुओं मेंः- प्राचीनकाल में ऐसी वस्तुएं थी जिनके बल पर देवता या मनुष्य असीम शक्ति और चमत्कारों से परिपूर्ण हो जाते थे। उन वस्तुओं के बगैर व्यक्ति खुद को असहाय मानता था। कहते है कि ऐसी वस्तुएं आज भी किसी स्थान विशेष पर सुरक्षित रखी हुई हैं। आओ जानते हैं उन्हीं में से 10 चमत्कारिक वस्तुओं के बारे में। हो सकता है कि आप ढंूढें या तपस्या करें तो आपको भी ये वस्तुएं मिल जाएं।
कल्पवृक्ष की मान्यताः- वेद और पुराणों में कल्पवृक्ष का उल्लेख मिलता है। कल्पवृक्ष स्वर्ग का एक विशेष वृक्ष है। पौराणिक धर्मग्रंथों और हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह माना जाता है कि इस वृक्ष के नीचे बैठकर व्यक्ति जो भी इच्छा करता है, वह पूर्ण हो जाती है। पुराणों में इस वृक्ष के संबंध में कई तरह की कथाएं प्रचलित हैं। इसके अलावा कुछ विद्वान मानते है कि पारिजात के वृक्ष को ही कल्पवृक्ष कहा जाता है। पहापुराण के अनुसार पारिजात ही कल्पतरू है, जबकि कुछ का गानना है यह सही नहीं है। पुराण तो बहुत बाद में लिखे गए। दरअसल, कल्पवृक्ष को कल्पवृक्ष इसलिए कहा जाता है कि इसकी उम्र एक कल्प बताई गई है। एक कल्प 14 मन्वंतर का होता है और एक मन्वंतर लगभग 30,84,48,000 वर्ष का होता है। इसका मतलब कल्प वृक्ष प्रलयकाल में भी जिंदा रहता है। पुराणों के अनुसार समुद्र मंथन के 14 रत्नों में से एक कल्पवृक्ष की भी उत्पत्ति हुई थी। समुद्र मंथन से प्राप्त यह वृक्ष देवराज इन्द्र को दे दिया गया था और इन्द्र ने इसकी स्थापना ‘सुरकानन वन’ (हिमालय के उत्तर में) में कर दी थी। माना जाता है कि धरती के किसी न किसी कोने में आज भी कल्पवृक्ष कहीं न कहीं जरूर होगा। हो सकता है कि यह हिमालय के किसी दुर्गभ स्थान पर मिले।
हिन्दु ग्रंथों एवं पुराणों की एक कथानुसार जब देवताओं एवं दानवों के बीच शेषनाग को लेकर समुद्र का मंथन के दौरान अनेको प्रकार के ऐसे सजीव एवं निर्जीव सामान निकले। इस मंथन में सबसे अधिक चर्चित में कामधेनू गाय एवं कल्पवृक्ष का जिक्र होता है। कल्पवृक्ष को कल्पतरू भी कहा जाता है। मानवीय एवं संस्कारिक जीवन में इस दिव्य पेड़ मिथकीय प्राणी किन्नारा या किन्नारी भी कहा गया है। इस पेड़ को स्वर्ग में अप्सरा और देवता द्वारा संरक्षित किया गया है। वैसे वैसे कल्पवृक्ष को लेकर संस्कृत साहित्य में कई किस्से-कहानियां उल्लेखीत की गई है। एक अन्य कथानुसार ऋषि दुर्वासा ने भी कल्पवृक्ष के नीचे जप एवं तप किया था। कल्पवृक्ष के देवताओं के राजा इंद्र के यहां पर होने के पीछे की कहानी भी समुद्र मंथन से जुडी है। बताया जाता है कि मंथन के बाद देवराज इन्द्र इस पेड़ को अपने साथ स्वर्ग ले गए थे। वैसे कल्पवृक्ष को संस्कृत में मनसारा भी कहा जाता है जिसका एक शाही प्रतीक के रूप में उल्लेख किया गया है। कल्पवृक्ष को बेशकीमती सोना और कीमती पत्थरों को प्रदान करने वाला वृक्ष भी कहते है। कल्पवृक्ष को संरक्षित पेड़ के रूप में गिना जाता है। उत्तराचल में इस पेड़ के चारों ओर एक तार जाल स्थापित करके के अलावा इसकी सुरक्षा की जबादेही सशस्त्र बलों के पास है। वैसे कहा तो यहां तक जाता है कि कल्पवृक्ष का पेड़ अद्वितीय गुण धारक है। यह अपने आप में एक एकल पत्ती कभी नहीं हारता, यह सदाबहार है और सुप्रीम देवत्व विष्णु के लिए जगत गुरू आदि शंकराचार्य के गहरे बैठा भक्ति निकलती होने के लिए कहा है कल्पवृक्ष कई आध्यात्मिक, धार्मिक और पर्यावरणीय मूल्यों में शामिल है। यह पृथ्वी पर एक दिव्य पेड़ के रूप में जाना जाता है। हिमालय वाहिनी के लिए सभी को एक मिशन की तरह तीर्थयात्रियों में कल्पवृक्ष का पौधा लगाने के लिए जन आंदोलन का आयोजन होता है, मिशन हरिद्वार से शुरू कर दिया। दक्षद्वीप कनखल में दुनिया का पहला कल्पवृक्ष को रोपित किया गया। वैसे आमतौर पर कल्पवृक्ष का रोपण नहीं होता लेकिन अब हरिद्वार तीर्थ द्वारा इसके रोपण का कार्य पूरा किया जा रहा है। इस मिशन में श्री विजय बघेल  के कन्वेयर यह इच्छा अधिक से अधिक पौधे रोपण, एक पवित्र वृक्ष के रूप में दुनिया भर के आध्यात्मिक और लुप्तप्राय है।
प्राचिन कल्पवृक्ष होने की पुष्टिः- कल्पवृक्ष के इतिहास में 8 सदी में 8 सदी में पावन मंदिर, जावा, इंडोनेशिया में कल्पवृक्ष जिसे कल्पतरू कल्पपदुरमा, और कल्प पदपा के रूप में जाना जाता है का जिक्र मिलता है। कहा तो यहां तक जाता है कि भारत में प्राचिन कल्पवृक्ष सिर्फ दो स्थानों पर ही है। उड़ीसा राज्य के जगन्नाथ पुरी धाम एवं ज्योर्तिमठ बद्रीनाथ धाम में आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा रोपित किया गया हुआ है।
एक पौराणिक के अनुसार अतृप्त इच्छाओं को पूरा करने वाला यह दिव्य पेड़ नेशनल हाइवे 69 पर भोपाल -नागपुर के बीच होशंगाबाद जिले के केसला थाना क्षेत्र में मौजूद है। थाना परिसर क्षेत्र के इस विचित्र पेड़ के कल्पवृक्ष होने का पूरा मामला उस समय प्रकाश में आया जब वन विभाग की रिर्सच टीम यहां पर आई और उसने इसके कल्पवृक्ष होने की पुष्टि की। सभी इच्छाओं को पूरा करने वाला यह कल्पवृक्ष का पूरा पौराणिक इतिहास का पुलिस केसला और वहां पर मौजूद स्टाफ को भले ही न हो लेकिन जब भी कोई जानकार व्यक्ति यहां पर आता है तो पुलिस कल्पवृक्ष को लेकर पुराणों की कथाओं को ध्यान पूर्वक सुनना पसंद करते है। केसला (होशंगाबाद)ः नर्मदांचल एवं ताप्तीचल के बीच स्थित एक छोटे से गांव में वृक्ष को कल्पवृक्ष घोषित कर दिया। कहा जाता है कि कल्पवृक्ष की तरह अजमेर (राजस्थान) में दो श्रद्धेय (पुरूष और महिला) पेड़ है कि 800 साल से अधिक पुराने हैं। वैसे अब इन्हे भी कल्पवृक्ष के रूप में जाना जाता है इन पेड़ों में अमावस्या के एक दिन तथा श्रवण मास के हिदू महीने में पूजा की जाती है। पहापुराण के अनुसार इस पेड़ को परीजात का पेड़ भी कहा जाता है। प्राचीन शहतूत के पेड़ को कल्पवृक्ष के रूप में स्थानीय लोगों द्वारा जाना जाता है।
उत्तर प्रदेश के बस्ती में होने की पुष्टिः- भारत के नक्शे पर उत्तर प्रदेश के बस्ती के मुण्डेरवा कस्बे के चीनी मिल परिसर में स्थित पेड़ की जाँच के बाद राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ (एनबीआरआई) ने इसे कल्पवृक्ष घोषित कर दिया है। विजय सागर सेवा संस्थान ने मिल परिसर के इस वृक्ष को कल्पवृक्ष बताते हुए संासद हरीश द्विवेदी से जांच कराने की मांग की थी। इस पर सांसद ने एनबीआरआई को जांच के लिए पत्र लिखा। एक जून को आए दो वैज्ञानिकों ने जांच की और नमूना लेकर गए। जांच के बाद कार्यकारी निदेशक डीके उप्रेती ने बताया कि यह वृक्ष करीब साठ वर्ष पुराना है। इसका वैज्ञानिक नाम ‘एडेन सोनिया डिजिडाटा’ है। मूल रूप से यह अफ्रीकी महाद्वीप के रेगिस्तानी क्षेत्र में पाया जाता है। भारत में प्राकृतिक रूप से यह वृक्ष कहीं नहीं पाया जाता। इसे तत्कालीन चीनी मिल के चीफ केमिस्ट ने यहां लगाया था।
                        कल्पवृक्ष-वन
देवर्षि नारद को जगत् में और जगत् के बाहर दिव्य लोकों भी कुछ अद्भुत करते रहने का व्यसन है। मन्दराचल पर वे उमा-महेश्वर का दर्शन करने पधारे। बिना पूछे ही उन्होंने भगवती पार्वर्ती से कहा-‘आज अमरावती में शची ने कल्पवृक्ष से बाँधकर इन्द्र का मुझे दान किया है।’
    ‘इसका क्या फल होता है?’ उमा ने पूछा। अभी तक देवी के मन में कोई कुतूहल, कोई जिज्ञासा जगी नहीं थी।
    ‘सर्वकामप्रद कल्पवृक्ष के साथ पति को दान करने से उसी पति की नित्य प्राप्ति स्वाभाविक है।’’ देवर्षि ने कहा-‘इस महादान का परिणाम काल के क्षेत्र में सीमित नहीं किया जा सकता। शची ने इस प्रकार सदा के लिए इन्द्र का पत्नीत्व प्राप्त कर लिया है।
    ‘तुम्हारा कल्याण हो।’ उमा ने प्रफुल्ल होकर देवर्षि को आशीर्वाद दिया। ‘इस दान के पश्चात् इन्द्र का और कल्पवृक्ष का आपने क्या किया? क्योंकि इस महादान को प्राप्त करके ये दो तो आपके हो गए थे।’
    ‘जगदम्बिके! मैं कल्पवृक्ष का क्या करता? वैसे ही भटकता रहने वाला एकाकी हूँ। कल्पवृक्ष अर्थ, धर्म, काम सकता है- देवर्षि ने कहा -‘किसी दुर्भाग्य से यदि इसमें कुछ पाने की कामना मेरे मन में उठ ही गई, तब अपने अनुग्रह भाजन के लिए आप भुवनेश्वरी कभी कृपाकृपण होंगी-यह मुझे विश्वास है। इन्द्र का भी मैं क्या करता?
    अमरावती के महाभोगी को लेकर मैं उसके लिए अमृत और अप्सराएँ कहाँ से जुटाने बैठता। मैंने निष्क्रम लेकर कल्पवृक्ष और शक्र -दोनों ही शची को अर्पण कर दिया।
    ‘इसका निष्क्रय?’ देवी ने अत्यन्त उत्सुक होकर पूछा। अब उन्हें इस विवरण में बहुत रूचि हो गई थी। सचमुच यदि इस प्रकार के दान से भगवान् शशांकशेखर का नित्य पत्नीत्व सुनिश्चित हो जाता है तो यह दान उनके लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है, भले ही वे शिव की शाश्वत, अभिन्न सहचरी हों। प्रकृति के क्षेत्र में धर्म की विधि से यदि सरलता पूर्वक कोई इस प्रकार का आश्वासन प्राप्त हो सकता है तो उसे क्यों ने प्राप्त किया जाए।
    ‘मुझ एकाकी कौपीन-वीणाधारी को कोई निष्क्रय भी क्या देगा?’ देवर्षि ने खुलकर हँसते हुए कहा-‘शची ने अंजलि बाँधकर मेरे चरणों में मस्तक रखा और सुरों की अधीश्वरी के द्वारा दिया गया यह प्रणिपात ही पर्याप्त निष्क्रय है।’
    ‘आप अभी अमरावती चले जाएँ। भगवती पार्वती ने देवर्षि भूतनाथ को दान करना है। अत5 वे कल्पवृक्ष यहाँ भेज दें। आप सुरतरू को अपने साथ लेते आवें इन्द्र से कहिए, देव़देवेश्वर, अखिल लोकमहेश्वर, सदाशिव ने यह क्षीराब्धि सम्भव दिव्यतरू माँगा है। ’
    देवर्षि नारद ने भगवान् शंकर की ओर देखा। सस्मित शिव -देवर्षि! पर्वतराजतनया मेरा अर्धाग है। उनकी वाणी ही वाणी है।’
    नारद जी ने इन्द्र को जाकर जब यह संदेश दिया, देवराज अत्यन्त खिन्न हो गए। उन्होंने मस्तक झुका लिया। कुछ क्षण वे सोचते रहे। बद्धाँजलि बोले-‘देवर्षि! आप मुझपर दया कर सकते हैं। मुझे उपकृत कर सकते हैं। सुरतरू स्वर्ग में चला जाए तो स्वर्ग श्रीहीन हो जाएगा। आप भगवान् उमाकान्त से मेरी ओर से विनीत प्रार्थना करें, हलाहल पान करके सुरों को उन नीलकण्ठ ने उपकृत किया, क्षीरब्धि से जो कुछ निकला, वह उन प्रथम भोक्ता का उच्छिष्ट है। निर्माल्य पुनः उन्हें अर्पित करने की धृष्टता मैं नहीं कर सकता। वे सर्वसमर्थ मुझ सेवक की इस विवशता को, इस अविनय को क्षमा करें। कल्पवृक्ष उनकी कृपा का प्रसाद होकर अमरावती में रहे। इसके जाने से अमरपुरा सर्वथा कण्टकवन बन जाएगी। भगवान् विश्वनाथ तो आत्मा हैं, तपस्वी हैं, भस्म धारण करते हैं, विरक्त योगियों के परमार्थ हैं। कल्पवृक्ष का उन्हें क्या करना।’
    देवर्षि ने पुनः मन्दिर पर पहुँचकर उमा-महेश्वर को .................का सन्देश सुना दिया। ‘पुरन्दर आपसे भयभीत अवश्य है,....................वह बहुत लोलुप है। कल्पवृक्ष देने की बात सुन करके ही जैसे सूख गया था किसी प्रकार वह सुरतरू देना नहीं चाहते वैसे आप कठोरता पूर्वक आदेश देंगे तो वह देने को विवश ही।’
    भगवान् शंकर हँसे-‘देवताओं का अधिपति भी ..................है।’ देवी की ओर उन्होंने देखा-हम एक नन्हें क्षुप................किसी से याचना क्यों करें? किसी की कृपा की उपेक्षा ...............किसी के साथ क्रूरता करके कुछ छीनें क्यों? अथवा .............भयभीत करके कुछ देने को विवश ही क्यों करें? मैं तुम कल्पवृक्ष का पूरा कानन प्रकट करता हूँ, जिसका प्रत्येक वृक्ष सुरों के इस उपेक्षणीय हीन तरू से कहीं भव्य-समर्थ होगा। नन्दन का कल्पवृक्ष केवल त्रिवर्ग दे सकता है। देवि! तुम्हारे कानन का प्रत्येक वृक्ष प्राणियों को परम पुरूषार्थ प्रदान करने में ही समर्थ होगा।
    ‘प्रभो! आप त्रिभुवन की सृष्टि करने में समर्थ हैं, किन्तु त्रिलोकी की मर्यादा मिट जाएगी।’ यदि ऐसा कल्पवृक्ष कानन प्राणियों के लिए सुगम हो जाएगा। देवषि ने अंजलि बाँधकर प्रार्थना की-आप ऐसे कानन को इस प्रकार प्रकट करें कि वह सुरों के लिए भी अगम्य रहे। कल्पवृक्ष की आवश्यकता देवी को भी नहीं है, वे भी आपको उसके साथ दान करने मात्र के लिए उत्सुक है।
    ‘एवमस्तु!’ भगवान् आशुतोष ने दृष्टि उठाई और मन्दिर के अंक में बहुत बड़ी, योजन विशाल महागुफा प्रकट हुई। सम्पूर्ण गुफा में स्वर्णिमकान्त, नित्य प्रफुल्ल, अकल्पनीय सुन्दर कल्पवृक्ष-कानन प्रकट हो गया। भगवान् शिव के आदेश से रूद्र के अत्युग्र .............उस कानन की रक्षा करने लगे। वह सुरपुर सब के लिए अगम्य हो गया।
    देवी ने देवर्षि की ओर देखा, किन्तु देवर्षि ने मस्तक झुका गया। ‘मातः! मैं इस महादान को स्वीकार करने का अधिकारी नहीं हूँ। भगवान् भव मेरे अग्रज हैं, अनुज अग्रज का दान नहीं ले जाता।’
    तब तुम एक बार ब्रह्यलोक चले जाओ और मेरे स्वामी के अग्रज हैं, उन चारों कुमारों को मेरी ओर से प्रार्थना करके यह महादान लेने को प्रस्तुत करो। उमा ने सविनय कहा-‘उन्हें आमन्त्रित करो और साथ ले आओ।’
    देवर्षि के साथ चारों कुमार ब्रह्यलोक से मन्दिर पर उतरे। पूर्व-पुरूषों के भी पूर्वज, सृष्टि में ब्रह्या से उत्पन्न प्रथमाभिव्यक्ति, तेजोराशि चारों कुमार सदा दिगम्बर पाँच वर्ष की अवस्था के शिशु के समान ही रहते हैं। भगवान् विश्वनाथ ने उठकर इन कुमारों को अंकमाला दी। पार्वती ने सादर मस्तक झुकाया। अघ्र्य, पाद्यादि से इनका पूजन किया। प्रार्थना की-‘ कल्पवृक्ष के साथ शिव को दान करने की मेरी आकांक्षा आप इस महादान को स्वीकार करके परिपूर्ण करें।’
    ‘देवि! ऐसा अनुपम दान अस्वीकार कौन करेगा? महेश्वर महामुनियों को अभीष्ट है।’ कुमारों ने कहा-‘ऐसा कोई भी मुनि नहीं है जो शिव के इन चरणों की प्राप्ति -कामना न करता हो। यह आपकी कृपा से मिलता हो तो हमारे सब साधन सफल हो गए।’
    देवी अपने उल्लास में थीं। उन्होंने कुमारों को उस वाणी का रहस्य समझने का प्रयत्न नहीं किया। कुमार स्पष्ट ही कह ................थे कि शिव की प्राप्ति प्राणियों को परम सौभाग्य है। अभिप्राय बहुत स्पष्ट है कि ऐसा परम सौभाग्य हो जाए तो कोई भी उसे लौटाना किसी भी प्रकार स्वीकार नहीं करेगा। देवी.......अपनी वीणा बजानी प्रारम्भ कर दी। वे आनन्द से नृत्य ...........लगे-‘अब सृष्टि का कुछ अंकल्पनीय सौभाग्य बनेगा।’
    पार्वती जी ने भगवान् शंकर के सम्मुख अंजलि ................मस्तक झुकाया तो वे आनन्दमय नित्यविनोद प्रिय उठकर ....................के कानन में एक तरू के समीप उससे सटकर खड़े हो गए। देवी ने अपने उत्तरीय से ही उन्हें वृक्ष से बाँधकर दिया। त्रिभुवन के स्वामी शशांकशेखर के समीप आते ही वह दिव्य तरू इतना छोटा हो गया था कि उसकी उच्चतम शाखा भी उनके स्कन्ध से नीची ही थी। जिनके संकल्प से यह सम्पूर्ण सुरतरू कानन प्रकट हुआ था, उस कानन का कोई एक तरू शिव की समता कैसे कर सकता था, किसी को भी इस समय सुरतरू में कोई रूचि नहीं थी। उसका आकार कैस है और कैसा हो गया- ‘इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। पर्वतराजनन्दिनी ने हाथ में जल लिया और संकल्प किया।
    ‘अहं उमा स्वपतिं शंकर ब्रह्यपुत्राय सनकादि कुमाराय शिवस्य नित्यपत्नीत्व प्राप्त्यर्थे प्रददे।’
    सनत्कुमार ने आगे बढ़कर देवी के हाथ से वह संकल्प जल अपने कर में लिया। सनक ने उत्तरीय में बँध्े नित्यमुक्त शिव को बन्धन मुक्त किया। सनातन हँसकर बोले-‘हर! अब आप देवी के द्वारा हमको दिए हुए हो, हमारे हो, हमारे साथ चलोे।’
    ‘आप निष्क्रय लेकर कल्पतरू को और मेरे स्वामी को मुझे प्रदान करें। उमा ने अंजलि बाँधकर प्रार्थना की।’
    देवि! ब्राह्यण और देवता अर्चा प्राप्त करके प्रसाद प्रदान किए बिना चले जाएँ तो वे किसी के भी आराध्य नहीं रह जाएँगे। लंदन ने कहा-‘अतः आप सुरतरू को हमारे प्रसाद रूप से स्वीकार करें। हमको इसकी कोई आवश्यकता नहीं है, किन्तु हमको परमाभीष्ट हैं। यों भी आप देखती हैं हम अपरिग्री, .....................चारों भाईयों को कुछ चाहिए नहीं।’
    क्या?’ शैलाधिराजतनया व्याकुल हो गई।’ आप मेरे स्वामी को मुझे प्रदान नहीं करेंगे?’ यह तो उन्होंने सोचा ही नहीं था। इतनी बड़ी विपत्ति इस विनोद में आपतित होगी, किंचित् भी आशंका नहीं थी। देवी ने देवर्षि नारद की ओर देखा।
    आप सब शिव का क्या करेंगे? देवर्षि ने, अपने अग्रज कुमारों से सविनय कहा-‘आप इन्हंे कैलाश पर छोड़ दें। यह विनोद अंबिका को बहुत आकुल कर रहा है।’
    ‘दिगम्बर रूद्र हमारे आगे-आगे चलें। सनत्कुमार हँसकर बोले-‘हम शिशु हैं, हमारा नग्नत्व किसी का विनोद नहीं बनता, किन्तु शिव हमारे साथ नग्न चलेंगे तो जहाँ भी हम जाएँगे सबका विनोद होगा। सब प्रसन्न होंगे। त्रिभुवन को आनन्द-उल्लास के वितरण का अवसर हम छोड़ना नहीं चाहते।’
    ‘आप मुझ पर अनुग्रह करें। मेरे स्वामी को यदि आप यह स ेले जाते हैं तो मुझे आज्ञा दें कि आप सबके सामने ही इस शरीर  का त्याग कर दूँ। पार्वती ने अत्यन्त कातर कण्ठ से प्रार्थना की।
    ‘हम जानते हैं, आप इसकी अभ्यस्त हैं। दक्ष के यज्ञ में आपने इसी प्रकार देह त्याग किया था।’ सनन्दन सस्मित कह.............थे-‘किन्तु देवी! हम चारों ही जन्म और मृत्यु को कोई............नहीं देते। शरीर ही आप नष्ट कर सकती हैं, आपका अस्ति.......शाश्वत है, शिव शाश्वत हैं, किसी देह-त्याग से कोई अन्तर आवेगा। हम केवल एक प्रकार से शिव को आपको प्रदान सकते हैं। आप वचन दें-आप दोनों सदा हमारे रहेंगे, ........ और आप महामाया की हम पर नित्य अनुकम्पा हमारी बुद्धि और मन को आप कभी अव्यवस्थित नहीं होगे यही शिव का निष्क्रय है।
    ‘‘मैं उपकृत हुई। यह सब आपको नित्य प्राप्त है। आपने मुझ पर अनुग्रह किया।’ देवी ने चारों कुमारों को पुनः अर्चा की। चारों कुमार देवर्षि के साथ मन्दराचल से ब्रह्यलोक विदा हुए।
                       
काली-गौरी
शुम्भ और निशुम्भ- ये दोनों दैत्य सगे भाई थे। इन्होंने तपस्या करके ब्रह्याजी से वरदान प्राप्त किया। ब्रह्याजी किसी को सर्वथा अमर होने का वरदान तो दे नहीं सकते। उन्होंने इन दोनों को वरदान दिया-‘तुम दोनों सम्पूर्ण पुरूषों से अवध्य रहोगे, किन्तु किसी अयोनिजा पुरूष स्पर्श से अस्पृष्य कुमारी से उलझोगे तो वह तुम्हारा वध कर देगी।’
    दोनों दैत्य वरदान पाकर उन्मादी हो गए। उनके उत्पात के कारण जगत् वेद-पाठ स्वधा और स्वाहा अर्थात पितृतर्पण और यज्ञ रहित हो गया। सृष्टि कर्ता ने रूद्र से प्रार्थना की-‘इस असुर वध तभी सम्भव है जब आप किसी प्रकार देवी को रूष्ट करें।’ मन्दराचल पर एकांत में बैठे हुए महेश्वर ने उमा की ओर और उनको ‘काली’ कहकर हँसे। सहसा पार्वती रूष्ट हो आपको मेरा वर्ण प्रिय नहीं है तो अब तक आपने मुझसे नहीं कहा? आप आत्माराम आप्तकाम कामारि हैं।      
   

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