Wednesday, 26 July 2017

Life Story

लघु कथायें
विरोधभास

    कस्बेनुमा शहर के वे सि(हस्त व प्रसि( डाॅक्टर थे। उनकी ख्याति आसपास के कस्बों में ही नहीं, बल्कि आसपास के बड़े शहरों में भी फैल चुकी थी। नाम था रामकुमार, डाॅ रामकुमार!
    डाॅ. राम कुमार गरीब मरीजों से कुछ फीस वगैरह न लेते थे और उन्हें सेम्पल की दवाइयाँ भी मुफ्रत में दे देते थे। लायन्य क्लब के वे आजीवन सदस्य थे। लायन्स क्लब द्वारा प्रायोजित मेडिकल केम्प में भी सुदूर इलाकों में वे अपनी सेवायें देते थे। डाॅ. राम किसी भी तरह का इमर्जेन्सी मरीज को लेकर बचा लिया करते थे। फिर वो मरीज चाहे साँप कांटे का हो या नूमोनिया का। ऐसी उनकी ख्याति थी। नो रिस्क नो गेन। ऐसी उनकी सोच थी।
    सभी लोग उनके बारे में अच्छा ही कहते हैं। उनके बारे में एक किस्सा तो काफी मशहूर हुआ था। हुआ यों कि एक बार एक मरीज को ठेले पर डालकर लाये। लाने वाले मरीज की पत्नि और बेटे थे। वे जोर जोर से रोये जा रहे थे। डाॅ. राम सड़क पर ही भागकर ठेले के पास पहुँचे। देखा तो मरीज सांस नहीं ले पा रहा था और मौत के करीब था। डाॅ. राम कुमार जान गये कि वो कुछ पल का मेहमान है। उन्होंने नर्स को बुलाकर 4-5 इंजेक्शन लगाने के लिये कहा। बेचारी नर्स भाग-2 कर वो सारे इंजेक्शन लेकर आई और जैसा डाॅ. साहब ने कहा एक के बाद एक लगाती गई। थोड़ी ही देर में मरीज में हरकत हुई और वो हार्ट मसाज और इंजेक्शन के असर से ठीक होने लगा। तब डाॅ0 साहब ने उस मरीज को हास्पिटल के अन्दर लाने के लिये कहा। कुछ दिन में मरीज पूर्ण स्वस्थ होकर घर चला गया। मशहूर यह हुआ कि डाॅ. रामकुमार ने कफन में लिफटे मरीज को जिन्दा कर दिया। यह किसी हद तक सच भी था। क्योंकि मरीज के रिश्तेदार रास्ते में से कफन भी खरीद लाये थे। वे समझ रहे थे कि मरीज मर चुका है।
        डाॅ. रामकुमार ने सड़क पर जाकर ठेले पर पड़े मरीज को इंजेक्शन इसीलिये दिये थे, क्योंकि वेे जानते थे कि जिन्दगी और मौत में एक बारीक सी लाइन होती है और मरीज कब उस लाइन के इस तरफ से उस तरफ हो जाये पता नहीं चलता। सड़क पर इलाज करने का उनका मकसद भी यही था कि आप मरे हुए मरीज़ को नहीं मार सकते। जो अगर मरीज़ न बचता तो वे मौत की घोषणा कर देते। वो कहते हंै कि डाॅक्टर यदि मरीज ठीक कर लेता है तो सूरज देखता है और जो अगर मरीज मर जाता है तो ज़मीन उसे छुपा लेती है। वेन्टीलेटर पर पड़े मरीज न पूरे जिन्दा होते है न पूरे मर चुके होते है। मेडिकल साइन्स उनको जिन्दगी और मौत के बीच की उस बारीक सी लाइन पर पकड़ लेती है।
        दूसरे दिन सुबह डाॅ. रामकुमार बहुत अच्छे मूड में थे। वे जल्दी जल्दी तैयार होकर घर से निकल रहे थे क्योंकि हास्पिटल से फोन आ गया था कि काफी मरीज़ इन्तजार कर रहे है। निकलते-2 उन्होंने खाना बनाने वाली बाई को जाते देखा। वो 25 वर्ष की छरहरे बदन की लड़की जैसी ही दिखती थी। वो अपने आँचल में कुछ छुपा रही थी। डाॅ. साहब को शक हुआ कि जरूर कुछ चोरी करके जा रही है। डाॅ. साहब ने कड़क कर उससे पूछा कि वो क्या छुपा रही है। खाना बनाने वाली की घिग्घी बँध् गई। डाॅक्टर साहब जानते थे कि वो प्रेग्नेन्ट ;पेट सेद्ध है। खाना बनाने वाली ने आँचल खोलकर दिखा दिया। उसमें नमक, काली मिर्च और हल्दी की पुड़िया थी। कागज में बँध्ी हुई। डाॅक्टर साहब ने आप देखा न ताव और एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे जड़ दिया। बाई की आँखें जरा सी तर हुई लेकिन वो रोई नहीं। डाॅक्टर साहब ने उससे कहा कि वे मालकिन को बता देंगे और मालकिन उसे नौकरी से निकाल देगी। मालकिन यानी डाॅक्टर साहब की पत्नि जो स्वयं लेडी डाॅक्टर थी। अब वो बाई बोली मुझे नौकरी से मत निकलवाना। मेरा पति कुछ कमाता नहीं है और मेरे बच्चे भूखे मर जायेंगे।
        डाॅक्टर साहब को पता नहीं क्या सूझा वे बोले ठीक है एक शर्त पर। और शर्त तुम जानती हो। बाई बोली लेकिन मेरे पेट में बच्चा है। डाॅक्टर साहब ने कहा तो क्या तुम्हारा पति रात को अलग सोता है। जबाव था ‘‘नहीं’’ इसके बाद बाई अन्दर बेडरूम में गई। वहाँ जाकर उसने अपना आँचल गिरा दिया।
        डाॅक्टर साहब आध घन्टा देरी से हास्पिटल पहुँचे।

अन्तकरण
    वह शहर की प्रसि( व व्यस्ततम लेडी डाॅक्टर थी। नाम था डाॅ0 जसमीत कौर। वह काफी सीनियर थी। उनका हर निर्णय मरीज के लिये अन्तिम होता था। जैसे उन्होंने बोल दिया कि सीजेरियन की जरूरत है तो फिर वे बिना और इन्तजार किये जल्दी से आप्रेशन कर देती थी। मरीज भी उनकी सलाह को बृम्हावाक्य समझ मान लेते थे। और किसी की सलाह लेने नहीं जाते थे। डाॅ0 जसमीत कौर की सादगी, डाउन टू अर्थ इमेज- विनम्रता और उनके ज्ञान की प्रतिभा के सब कायल थे। मुश्किल से मुश्किल और इमरजैंसी केस को वे चुटकियों में हल कर लेती थी। हास्पिटल में उनका रोब-दाब भी अत्याध्कि था। कोई भी उनकी बात टालता न था। हाँलाकि सुनने में ये भी आया था कि उनके पति से उनकी नहीं बनती थी और अक्सर वे झगड़ा करते रहते थे। उनके पति डाॅ अरविन्द सिंह मेडिकल स्पेशलिस्ट थे। उनके दो बच्चे थे।
        1980 के दशक से ही डाॅ. जसमीत कौर मरीजों का गर्भपता करती आ रही थी। उनके बारे में मशहूर था कि बिन ब्याही लड़कियों तक के वे एबार्शन ;गर्भपातद्ध कर देती थी। ऐसी लड़कियाँ घर पर बोल कर आती थी कि पिक्चर देखने जा रही है और एबार्शन कराके घर चली जाती थी तीन घन्टे में। यह लड़कियाँ एबार्शन के लिए सहमति पत्रा पर स्वयं ही हस्ताक्षर कर देती थी। डाॅ0 जसमीत कौर के डाॅ पति ही एनिस्थीसिया दे दिया करते थे। हाँलाकि 1980 के दशक में एबार्शन करना या कराना अवैधनिक था। जो कि बाद में लीगल हुआ था। इसमें रिस्क भी बहुत था। इसलिये डाॅ0 जसमीत कौर मुँहमांगी फीस लेती थी। इस तरह से वे अपने पति से ज्यादा कमाती थी और शायद यही कारण था उनकी आपस की अनबन का।
        ज्यादातर गर्भपात बिना किसी जटिलताओं ;काम्पलीकेशनद्ध के निपट जाते थे। लेकिन एक बार क्या हुआ कि गर्भपात के दौरान अत्याध्कि रत्क स्त्राव हो गया। अब मरीज की जान का खतरा था। डाॅ0 दम्पति के हाथ-पैर फूल गये।
        रात दो बजे मरीज के गु्रप का ब्लड भी नहीं मिल पा रहा था। मरीज का रक्त-स्त्राव मौत की तरफ ले जा रहा था। जल्दी ही कुछ करना जरूरी था।
        डाॅ0 अरविन्द सिंह ने मरीज को अपनी कार में डाला। मरीज के पति और एक रिश्तेदार को साथ लेकर वे बड़े अस्पताल लेकर गये। सरकारी अस्पताल में इमर्जेन्सी में हर काम में देरी लगती है। इमर्जेन्सी में मौजूद लेडी-डाॅक्टर कुछ ज्यादा ही ध्ीमी गति से काम कर रही थी। डाॅ अरविन्द सिंह उनसे लड़ लिये। वे लेडी डाॅक्टर से बोले मरीज का ब्लड अभी तक क्रास मेच के लिये क्यों नहीं भेजा। लेडी डाक्टर का जवाब भी सटीक था बोले ‘‘वार्डबाय आयेगा तो ही तो लेकर जायेगा।’’ डाॅ अरविन्द सिंह बोले ‘‘लाइये मुझे ब्लड का सैम्पल दीजिये मैं स्वय ब्लड की बाटल ब्लड बैंक से लेकर आता हूँ।’’ लेडी डाॅक्टर ने कहा, ‘‘मैंने ब्लड बैंक फोन कर पता कर लिया है कि इस ग्रुप का ब्लड ब्लड-बैंक में नहीं है। जब तक कोई डोनर न हो ब्लड सेंपल भेजने से कोई फायदा नहीं है। डाॅ अरविन्द सिंह बोल, ‘‘मेरा ब्लड ग्रुप भी यही है। बी पाजीटिव। आप मुझे सेम्पल दीजिये मैं ब्लड डोनेट करूँगा। ‘‘मरीज की जान तो बचेगी।’’ लेडी डाॅक्टर बोली एक तो अवैधनिक तरीके से एबार्शन करते है और मरीज जब मौत के करीब आ जाता है तो उसे यहाँ शिफ्रट कर देते है। दूसरा यहाँ आकर ऐसे रोब दिखाते है जैसे सरकारी अस्पताल इनके बाप का हो। ‘‘लेकिन यह सब कहने के बाद लेडी डाॅक्टर ने मरीज का ब्लड सेंपल डाॅ. अरविन्द सिंह को पकड़ा दिया। डाॅक्टर अरविन्द सिंह भाग कर ब्लड बैंक पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपना ब्लड डोनेट किया और क्रास मेच के बाद इमर्जेंसी में लाकर दिया। ब्लड की बाटल लगने से मरीज को डूबती नब्ज वापस आने लगी। डाॅ. अरविन्द सिंह लगभग 3 घन्टे बाद अपनी कार की तरफ घर जाने के लिए बढ़े। लेकिन मरीज के रिश्तेदारों के बीच रास्ते में उन्हें चाकू दिखाया और बोले जब तक हमारा मरीज खतरे से बाहर नहीं हो जाता, आप यहाँ से नहीं जा सकते। डाॅ0 अरविन्द सिंह बहुत थक चुके थे। सारा दिन उन्होंने मरीज़ देखे थे और सारी रात मरीज को बचाने की भागदौड़! चुपचाप वे अस्पताल की तरफ लौट गये। लगभग 4 घन्टों बाद मरीज खतरे से बाहर आ गई। तब जाकर डाॅक्टर साहब अपने घर के लिये रवाना हुए। दूसरे दिन सारी बात डाॅकटर साहब ने अपनी पत्नि को बताई। डाॅ जसमीत कौर ने सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं कहे।
        इस घटना के कुछ ही दिन बाद डाॅ. जसमीत कौर ने एक वीडियों क्लिप देखा। इस वीडियों मंे एबार्शन के वक्त सोनोग्राफी की गई थी। इसमें दिखाते है कि किस तरह तब एबार्शन करने के दौरान फारसेप ;औजारद्ध जब छोटे से फीटस ;बच्चेद्ध के पास आते हैं तो वो सिकुड़ता है, उन औज़ारों से डरता है। सिमटकर उन औजारों से बचने की कोशिश करता है। लेकिन वे औजार उसकी सब झिल्ल्यिों को काटकर उसतक पहुँचकर उसे नष्ट कर देते है।
        इन्सान की मौत-ह्यूमन डेथ! ना पैदा हुए बच्चे का कत्ल! बच्चा चाहकर भी उन औज़ारों से बच नहीं सकता तब जब कि बच्चे का दिमाग अभी पूर्ण विकसित नहीं हुआ है। फिर भी वो संवेदनशील है। ज़िन्दा है। लेकिन अपनी सुरक्षा खुद नहीं कर सकता! यह वीडियों क्लिप देखकर डाॅ जसमीत कौर की आँखे नम हो गई। और उन्होंने ठान लिया- बस अब और नही। किसी भी कीमत पर और नहीं। तब से लेकर उन्होंने नर्सिंग होम में एक बोर्ड लगा दिया। ‘‘यहाँ एबार्शन नहीं होते।’’ इसके बाद वे परिवार नियोजित करने के लिए महिलाओं को जागरूक करने लगीं कि किस तरह वे अनचाहे गर्भ से बच सकती है। यह रोशनी का अहसास उन्हें छोटे से वीडियों क्लिप से हुआ था।
    अन्तकरण को आवाज़ जिस पल सुन लो वही पल उजाला बिखेर देता है आसपास और मन आत्मा में। बस आत्मनिरीक्षण करते रहिये।


नियति
    डाॅ. विजय और हाईकोर्ट एडवोकेट आनन्द अच्दे मित्रा थे। हाॅलाकि मुम्बई में दांेनों लगभग 30 कि0मी0 दूरी पर रहते थे। लेकिन सप्ताह में एक दो बार उनका मिलन हो ही जाता था। खासकर सन्डे को। महीने-दो महीने में किसी के भी घरपर एक दो डिंªक्स भी हो जाते थे।
        एडवोकेट आनन्द अपनी सेहत के लिये कुछ न कुछ रोज करते थे। बारिश हो तो घर पर व्यायाम या सायकल चलाना, ना हो तो बेडमिन्टन या कभी तैरने जाना। डाॅ0 विजय दूसरे कई व्यस्त डाॅक्टरों की तरह अपनी सेहत के प्रति बहुत लापरवाह थे। ड्रिंक्स भी दो की जगह तीन लेते थे। दोनो अपने-2 प्रोफेशन के लिए प्रतिब( अच्छी जिन्दगी जी रहे थे। मजेदार बात यह है कि दोनों अकेले रहते थे क्योंकि दोनों शादी और घर बसाने जैसी प्रकृति के नहीं थे।
        सबकुछ अच्छा चल रहा था कि एक दिन अचानक एडवोकेट आनन्द को बहुत जोर से सीने में दर्द हुआ और पसीना आ गया और वे तड़पने लगे। बड़ी मुश्लिक से उन्होने अपने मित्रा डाॅ. विजय को फोन किया। डाॅ. विजय बोलते, जल्द से जल्द एस्प्रीन की गोली चबा के खालो और मैं भी पहुँच रहा हूँ और एम्बुलेंस भी। डाॅ0 विजय ने एम्बुलेंस को इमर्जेंसी के लिये फोन किया और अपने बेग के साथ वे कार से अपने मित्रा के घर के लिये रवाना हो गये। दोपहर के वक्त ट्रेफिक अध्कि नहीं था। वे 40 मिनट में आनन्द के आठवे माले के फ्रलेट में थे। तब तक एम्बुलेंस भी आ गई थी। डाॅ. विजय ने चेक किया और समझ गये कि यह हार्ट अटैक ही था। जल्दी से उन्होंने दर्द निवारक इन्जैक्शन लगाये एक एस्प्रीन और खून पतला करने की दवाई दी। हस्पिटल में फोन करके बोले कि आप्रेशन थियेटर और हार्ट सर्जन तैयार रहे इमर्जेंसी में एंजियोप्लास्टी करने के लिये। आनन्द की हालत काफी खराब थी। डाॅक्टर विजय ने अपनी कार वही छोड़ दी। वे एम्बुलेन्स में एडवोकेट आनन्द के साथ हस्पिटल चले गये। एम्बुलेन्स में उन्होंने अपने मित्रा को आक्सीजन लगा दी। आनन-फानन में वे हास्पिटल पहुँच गये। डाॅ. विजय को मरीज के साथ आया देखकर पूरा स्टाफ एलर्ट हो गया। 3 घन्टे में तो एडवोकेट आनन्द की एंजियोप्लारटी हो गई। वे अब आप्रेशन थियेटर के बाहर थे। आई.सी.यू में भी खतरे से बाहर थे यह डाॅ. विजय जान चुके थे। वे खुश थे कि समय रहते वे अपने मित्रा के लिये कुछ कर पाये। मित्रा के होश में आने पर डा. विजय ने पूछा, ‘‘क्यों एस्प्रीन की गोली खाई थी या नहीं?’’ एडवोकेट आनन्द बोले, ‘‘हाँ, खाई थी। आज सुबह ही मेरे सिरदर्द हो रहा था, तो कोर्ट मंे असिस्टेन्ट को भेजकर दस गोली मंगाई थी। एक सुबह खाई थी। एक जब तुमने कहा तब खाई थी।’’ डाॅ. विजय समझ गये थे, ‘‘जाँको राखे साइयां मार सके ना कोय।’’
    3 माह के भीतर एडवोकेट आनन्द वापस बेडमिन्टन खेलने लग गये। और 6 माह के भीतर उन्होंने शादी कर ली। अब वे अपने डाॅ. मित्रा के पीछे पड़े रहेते कि वे भी सिंगल से डबल हो जाये। लेकिन डाॅ. विजय अपने प्रोफेशन में इतने व्यस्त थे कि शादी उनकेा झंझट ही लगती। वे अपने प्रोफेशन के साथ अन्याय नहीं कर सकते थे।
    दिन, महीने, साल गुजरते गये। एडवोकेट आनन्द 6 साल में दो बच्चों के पिता बन चुके थे। लेकिन डाॅ. विजय वहीं के वहीं वैसे के वैसे थे बिलकुल अकेले, लेकिन खुशी सुकून और ऊर्जा से भरपूर।
    दरअसल, कुछ लोगों की प्रकृति होती है, दूसरों पर निर्भर होने की और कुछ अपने ही बल बूते पर सब कर गुजरत हैं। दांेनों ही मित्रा आत्म निर्भर थे। लेकिन एडवोकेट आनन्द को भावात्मक सहारे की जरूरत हार्ट-अटैक के बाद अध्कि लगने लगी थी। वहीं डाॅ. विजय का मनोबल बहुत परिपक्व और ऊँचा था। इन 6 वर्षों में आनन्द की शादी के बावजूद उनकी मित्राता में कोई फर्क नहीं आया था।
        मित्रा के हार्ट अटैक की स्थिति को देखने के बाद डाॅ. विजय भी सुध्र गये थे। वे बकायदा एक्सरसाइज करते और डिंªक्स भी उन्होंने कम कर दिये थे। लेकिन होनी को कौन टाल सकता हैै। एक दिन उन्हें भी शाम 4 बजे सीने में तेज दर्द और पसीना आने की शिकायत हुई। दर्द इतना तीव्र व असहनीय था कि वे उठकर कुछ भी कर सकने में समर्थ न थे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने एम्बुलेन्स और अपने एडवोकेट मित्रा को फोन किया। मुशिकल से फ्रिज से पानी और बैग से स्स्प्रीन की गोली निकाल कर खाई। वे दर्द निवारक इन्जेक्शन स्वयं को लगाने की स्थिति में न थे। उन्हें लग रहा था कि वे शाॅक में जा रहे है और हास्पिटल तक पहुँच पाना शायद मुमकिन न हो। एडवोकेट आनन्द ने भी उनके प्रथम एक दो फोन का जवाब न दिया था, क्योंकि इस पल वे जज के सामने जिरह में थे। जिरह खत्म होने के बाद वे बाहर आये और सर्वप्रथम डाॅ. विजय को फोन किया। जैसे ही उन्होंने सुना, तो तुरन्त वे डाॅ विजय की घर की तरफ निकल पड़े। टेªफिक का भी पीक टाइम होने के कारण उन्हें 1 घन्टे से ज्यादा समय लग गया डाॅ विजय के घर पहुँचने में। उनके साथ-2 ही एम्बुलेंस भी पहुँची। छठे माले पर डाॅ. विजय का फ्रलेट था। लिफ्रट बन्द थी। एडवोकेट आनन्द और एम्बुलेंस स्टाफ सीढ़ियाँ चढ़कर उपर पहुँचे। देखा तो डाॅ विजय की हालत अत्याध्कि खराब थी। एम्बुलेंस की नर्स ने दर्द निवारक इन्जेक्शन दिया बिना रक्तचाप ;बी.पी.द्ध देखे। यह नर्स की गलती थी। पहले उन्हें बी.पी. ;रक्तचापद्ध देखना चाहिए था। जैसे-तैसे डाॅ. विजय को स्ट्रेचर पर लेकर सीढ़ियों के रास्ते से नीचे उतारा। उनकी श्वास की गति बहुत तेज थी और वे पसीने से तर-बतर थे। एम्बुलेन्स में उनको आक्सीजन दी गई। थोड़ी राहत मिली। लेकिन हस्पिटल पहुँचते 2 उन्होंने दम तोड़ दिया। डाॅ विजय को हार्ट-अटैक आये 3 घन्टे से अध्कि हो चुके थे।
        बहुत सारे सवाल थे। जैसे एडवोकेट आनन्द उस समय जिरह न कर रहे होते या ट्रेफिक का पीक टाइम न होता तो एम्बुलेन्स जल्दी आ सकती थी। डाॅ विजय के घर में कोई और होता जो उन्हें दर्द निवारक इंजेक्शन लगा सकता। चाहे उसके लिये हिदायतें डाॅ विजय ही देते। लिफ्रट बन्द न होती। नर्स ने बी.पी. ;रक्तचापद्ध देखकर इंजेक्शन लगाया होता।
        मौत को कौन टाल सकता है? क्या एक डाॅक्टर?
        नियति की हवायें तब चलती हैं जब हमें उनकी आशा कतई नहीं होती। कभी वे तूफान जैसी तेज़ गति से, तो कभी गालों को सहला देने वाली ममता के स्पर्श जैसी। पर इस हवाओं को कोई नकार नहीं सकता। कभी वे ऐसा भविष्य सामने ला देती है जिसकी हमने कभी कल्पना भी न की हो।
ज्ीमतम पे दव ेनबी जीपदह ंे ंबबपकमदजए पज पे ंिजम उपेदंउमक


अन्ध्विश्वास
    डाॅ. वैभव जल्दी-जल्दी मरीज़ निपटा रहे थे। उनके हास्पिटल में रश बहुत बढ़ गया था। वे जानते थे कि अगर उन्होने तेजी से काम नहीं किया, तो वे लन्च के समय तक अपने घर नहीं पहुँच पायेंगे। हाँलाकि जल्दी करने से वे टेन्शन फील करते थे। घर में भी बीबी के गुस्से से डरते थे। घर पहुँचते ही सुनने को मिलेगा। यह तो रोज की ही बात है। लन्च और शाम की चाय इक्ट्ठी ही पी लिया करो और वापस हास्प्टिल चले जाया करो काम पे। अभी डाॅ. साहब मरीज देख ही रहे थे कि अचानक एक 12 साल के बच्चे को लेकर आये जाँच के लिये। डाॅ साहब ने देखा उसको दो बार मिर्गी का दौरा पड़ गया उनके सामने ही। सब मरीज छोड़कर वे उस बच्चे को आई.सी.यू. में लेकर गये। जाते ही उन्होंने बच्चे को आॅक्सीजन, आई.वी. ग्लूकोज की बोतल और दोरे रोकने के कुछ इन्जेक्शन लगाये। लेकिन बच्चे की जबान नीली पड़ी हुई थी और बच्चा बेहोश था। सरसरी तौर पर बच्चे के अभिभावक से उन्होने पूछा था कि कैसे हुआ यह क्या सांप ने काटा था? डाॅ साहब ने तभी बोल दिया कि इतनी देर से क्यों लाये बच्चे को। बच्चे को मिर्गी के दौरे बन्द होने के बाद उन्होने अभिभावक से और भी जानकारी हांसिल की। कल रविवार दोपहर को बच्चा गार्डन में दूसरे बच्चों के साथ खेल रहा था। पता नहीं कहाँ से साँप निकल आया और एक ही बच्चे को काटकर चला गया। बाकी सब बच्चे डर के भाग गये।
        डाॅ वैभव ने उन्हे तसल्ली दी। लेकिन वे स्वयं आश्वस्त नहीं थे कि बच्चा बच पायेगा या नहीं। और डाॅ साहब अच्छी तरह जानते थे कि जब उनके मन में सुनिश्चित नहीं होता, तो ज्यादातर मरीज बचता नहीं है। उन्होने बहुत सारे साँप काटे के मरीजों को बचाया था, लेकिन लगभग वे सभी साँप काटने के 1-2 घन्टे में ही उनके पास पहुँच गये थे इलाज के लिये।
        डाॅक्टर वैभव ने साँप के जहर को निष्प्रभावित करने का इन्जेक्शन टेस्ट करके लगाने को कहा। नर्स ने टेस्ट किया और बच्चे का टेस्ट पोजिटिव आया। अब अगर बच्चे को इंजेक्शन लगाते हंै तो रीएक्शन ;प्रतिक्रियाद्ध हो सकता है और उसमें जान जा सकती है और नहीं लगाते, तो साँप के जहर को निष्प्रभावित नहीं कर सकते। एक तरफ कँुआ, एक तरफ खाई। डाॅ विजय ने 5 मिनट सोचा और नर्स को कहा कि रीएक्शन होने पर जो दो इंजेक्शन लगाते है, वे दांेनांे पहले लगा दो और बाद में ज़हर को निष्क्रिय करने का। नर्स ने वैसा ही किया। रीएक्शन नहीं हुआ। डाॅ वैभव खुश थे कि बच्चा बच जायेगा। लेकिन शाम होते होते बच्चे को दो-तीन बार मिर्गी के दौरे और पड़ गये और बच्चे को वेन्टीलेटर सपोर्ट की जरूरत पड़ गई। अब डाॅ. विजय परेशन से थे।
        दरअसल कुछ डाॅक्टर्स मरीज से अपने-आप को जोड़ कर नहीं रखते और कुछ जो संवेदनशील होते है वे मरीज के सुख-दुख में ही जीने लग जाते हैं। डाॅ वैभव थे बहुत ही अध्कि सहज व संवेदनशील।
        देर रात को वे बच्चे के पिता को समझा रहे थे कि बच्चे के बचने की उम्मीद कम होती जा रही है। लेकिन बच्चे के पिता बार-2 यही बोल रहे थे कि डाॅ. साहब आपने तो कितने ही साँप काटे मरीजों, को बचाया हुआ है। डाॅ. साहब ने कहा वे सब साँप काटने के 1-2 घन्टे के अन्दर ही यहाँ पहुँच गये थे तो जहर पूरे शरीर में फैला नहीं था और वे बच गये। तुम अपने बच्चे को लगभग 24 घन्टे बाद लाये हो। लेकिन बच्चे के पिता का अपने उपर पूर्ण विश्वास देखकर डाॅ वैभव भी डर गये थे। अगर इनका इकलौता बच्चा मर गया, तो वे कैसे सहन कर पायेंगे। रात जब डाॅ वैभव घर जाने लगे, तो बच्चे के पिता से यो ही पूछ लिया कि तुम क्या काम करते हो? बच्चे के पिता ने जो जवाब दिया वो डाॅ साहब की आशा के परे था।
    बच्चे के पिता ने कहा कि वो मन्त्रा पढ़कर साँप और बिच्छू का जहर उतार देता है। डाॅ. साहब ने पूछा कैसे? वे बोले एक कटोरी में पानी लेते है। मन्त्रा पढ़ने के बाद वह पानी दूसरे व्यक्ति को पिला देते है और जहर उतर जाता है। डाॅ साहब ने पूछा फिर अपने बच्चे के लिये यह सब क्यों नहीं किया। वे बोले किया था लेकिन शाम होते-2 बच्चे के मुँह से झाग आने लगे थे और तबियत और बिगड़ गई थी।
        तब डाॅ. वैभन ने उन्हे समझाया कि 70-80 प्रतिशत साँप सहरीले नहीं होते। तुम जिन साँप काटे वाले मरीजों का जहर उतारते थे, उनमे जहर होता ही नहीं था। लेकिन तुम्हारे स्वयं के बच्चे को जहरीले साँप ने काटा था। इसलिये जहर उतरा नहीं। जिन साँपों की पीठ पर ऐंसी धरीदार लाइने खिंची होती है अक्सर वे जहरीले होते हैं। और पानी के साँप तो और भी कम जहरीले होते है।
        इन्सान को प्यार पैसा और शोहरत से ज्यादा सच की जरूरत होती है। डाॅ वैभव यही सोच रहे थे कि इसी आदमी के कारण उनके कई साँप काटे मरीज लेट आये थे इलाज करवाने। और उनको कितनी अध्कि मेहनत और कोशिश करनी पड़ी थी जान बचाने के लिये। और फिर भी कुछ तो ऐसे थे ही जिनको डाॅ. वैभव बचा नहीं पाये थे। उसके लिये हमेशा वे इसी आदमी को कोसते थे जिसे वे आजतक जानते भी न थे। ठीक इसी तरह वे उन सब बाबाओं और विभूतियों को कोसते थे जो किसी भी तरह मरीज को विश्वास दिला देते थे कि उनकी दी हुई दवा या गोली से े मध्ुमेह की बिमारी ठीक हो जायेगाी या पुत्रा ही प्राप्त होगा, या ऐसे ही कुछ और ऐसे मरीज मघुमेह की दवा या इन्सुलिन छोड़कर वो गोली खाने लगते और फिर 500 मि.ग्रा0 तक का बढ़ा हुआ शुगर लेकर गम्भीर अवस्था में डाॅ वैभव के पास आते थे। इन बाबाओं और मन्त्रा पढ़कर बिमारी ठीक करने वालों से एक नफरत सी थी डाॅ वैभव के मन में। लेकिन वे असहाय थे। क्योंकि उन नीम-हकीमों के लिये कोई प्रभावी कानून न थे अगर थे भी तो लयर। और कहाँ कोई चेकिंग होती है। हिन्दुस्तान है यह अपना देश। यहाँ सब चलता है। कभी ध्रा भी गये तो 100-500 रूपये रिश्वत देकर छूट जाते है।
        डाॅ. वैभव इस बच्चे के लिये पहले से ही बहुत टेन्शन में थे। अब टेन्शन बढ़ गया था। क्योंकि बच्चे के साथ कुछ ऊँच-नीच हो गई तो इनके पिता गाँव में जाकर सबको यही कहेंगे कि वे स्वयं मन्त्रा से जहर न उतार पाये तो डाक्टरों ने भी कौन सा बड़ा तीर मार लिया।
        तीसरे दिन बच्चे की जिन्दगी का संघर्ष समाप्त हो गया। डाॅ साहब बहुत निराश हुए। बेमन से उन्होने बच्चे की मृत्यु की सूचना दी। होनी को कौन टाल सका है। जिन्दगी एक सुन्दर झूठ है, और मौत एक दर्दनाक सत्य। डा0 वैभव निराश हो गये की वे अंध्विश्वास को दूर न कर सके। गाॅव वालों को मंत्रा पर से विश्वास न जायेगा लेकिन हुआ कुछ और बेटे की मृत्यु के बाद पिता ने अब वह ध्न्ध ही छोड़ दिया। अपनी रोजी-रोटी छोड़ दी। अब जितने भी साँप के काटने के मरीज आते वो सीध्े डाॅ वैभव को भेज देते। इति

ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्
यह नहीं छापनी
बेवफाई
    प्रेम में मौत जेसी वेदना है तो ईष्र्या मे कब्र जैसी गहराई!
    बात 1996 की है। डाॅ मोहम्मद लीबिया के दूर-दराज़ छोटे से कस्बे में कार्यरत थे बतौर रेडियालाॅजिस्ट। यह कस्बा सहारा रेगिस्तान में है। चारो तरफ रेत ही रेत। हरियाली देखने को आँखे तरस जाती। गर्मी में रेत के बवन्डर। गर्मी इतनी कि बाहर निकलो तो चमड़ी जलने लगती और सर्दी के दिनों में ठन्ड इतनी कि नार्थ पोल याद आ जाये। दूसरा कस्बा वहाँ से लगभग 150 कि0मी दूर। इस कस्बे में एक भी थियेटर नहीं था।
        हास्पिटल के पीछे बने क्वार्टर्स में डाॅ मोहम्मद रहते थे। वे सिंगल है। रशिया से उन्होने एम.डी. किया है। वे यमन से हैं। जल्द ही उनके दो दोस्त बन गये। एक है बुल्गारिया की नर्स वतका, दूसरे डाॅ पुनीत सर्जन जो इन्डिया से हैं, दिन भर तीनों बहुत बिज़ी रहते। डाॅ मोहम्मद अल्ट्रासाउड में नर्स वतका आई.सी.यू. में और डाॅ पुनीत आप्रेशन में। शाम होते ही तीनों टेनिस खेलने पास में बने क्लब मंे चले जाते। थक-हार कर आते दो-दो पैग लगाते और सो जाते। डाॅ पुनीत जानते थे कि डाॅ मोहम्मद और नर्स वतका का लव अफेयर चल रहा है और वतका डाॅ मोहम्मद के क्वार्टर में ही रहती है।
    डाॅ मोहम्मद और नर्स वतका दोनो को ही शराब और सिगरेट सेवन का अत्याध्कि शौक है। शायद अब यह उनकी आदत ही बन गया है। डाॅ पुनीत भी दो पैग के साथ कभी कभार सिगरेट का कश ले लिया करते थे।
    दिन व्यस्त थे। रातों में ठन्डी बियर चलती। क्वार्टर के सामने बने बगीचे के फूलों से भीनी- भीनी सुगन्ध् आती जैसे कोई मूक निमन्त्राण दे रहा हो।
    डाॅ पुनीत भी शाम को काफी अकेलापन महसूस करते। डाॅ पुनीत भी इतने बड़े क्वार्टर में अकेले रहते थे उनकी फैमिली और दो बच्चे इन्डिया में थे।
        हास्पिटल के काम के अलावा कोई काम न था। ना टी.वी. चैनल्स थे, न मोबाइल। यहाँ सभी लोग रात 10 बजे तक सो जाया करते। फिर भी दिन, महीनों में और महीने साल में बदलते देर न लगती। 1) साल में डाॅ मोहम्मद और डाॅ पुनीत जिगरी दोस्त बन गये और एक दूसरे के बारे में सब कुछ जानने लगे।
        डाॅ पुनीत डाॅ. मोहम्मद के सरल स्वभाव के कायल थे साथ ही डाॅ. मोहम्मद विनम्र और ज़िन्दादिल थे। जिन्दगी में खुश कैसे रहना कोई उनसे सीखे। यहाँ तक कि रोजे के दिनों में वे दिन में खा-पी लिया करते यानि कि पी-खा लिया करते। फिर कोई मुस्लिम भाई आ जाये तो ऐसे मुँह लटकाकर बैठ जाते, जैसे सुबह से न कुछ खाया, ना पानी पिया हो। इसके बावजूद शाम को नमाज अदा करने के बाद सबके साथ मिलकर रोज़ा तोडते। जैसे दिन भर के भूखे प्यासे हो। कोई आडम्बर नहीं और डाॅ पुनीत को डाॅ मोहम्मद की यही बाते सबसे अच्छी लगती।
        एक दिन ऐसे ही शाम का ध्ुंध्लका था। नर्स वतका डाॅ पुनीत के दरवाजे पर थी। डाॅ पुनीत ने अन्दर आने के लिये कहा। सोफे पर बैठते ही डाॅ पुनीत ने पूछा ‘‘डाॅ मोहम्मद कहाँ हैं?’’ वतका ने कहा- ‘‘मालूम नहीं’’ यह कहते हुए वतका के चेहरे की उदासी डाॅ पुनीत से छुपी न रही। लेकिन वतका ने टापिक बदलते हुए पूछा ‘‘कुछ आवभगत नहीं करोगे क्या?’’
        डाॅ पुनीत ने थोड़ा शर्मिन्दा होते हुए पूछा -
    साॅरी-साॅरी बताओ क्या लोगी चाय या काॅफी? वतका ने बेझिझक कहा ‘‘लिकर-शराब।’’ थोडे आश्चर्य के साथ डाॅ पुनीत उठकर गये और दो गिलास शराब की बाटल और कुछ नमकीन ले आये। पहला पेग वतका ने बनाया। पीयर्स करने के बाद कब उन्होने तीन -तीन पेग खत्म कर लिये पता न चला दोनो ही सुरूर में थे। चैथे पेग के बाद तो दोनो की हँसी ही न रूक रही थी। बिन बात के ही हँसते चले जा रहे थे। अचानक वतका उठी। डाॅ. पुनीत के होंटो पर किस कर दिया। डाॅ पुनीत को यह अप्रत्याशित सा लगा। वे कुछ समझ न पाये। न ही वे कुछ प्रतिक्रिया दिखा पाये।
    सब कुछ इतना अचानक हुआ कि कुछ देर तक डाॅ पुनीत कुछ भी बोल न पाये। लेकिन जैसे ही वे संभले, उन्होने पूछा, ‘‘डाॅ मोहम्मद से झगड़ा हुआ क्या?’’ वतका फिर उदास हो गई। उनकी आँखों में आँसू थे, जिन्हे वह छुपाने की कोशिश करने लगी। लेकिन डाॅ पुनीत सब समझ गये थे। वो आपसी झगड़े से परेशन होकर उनके पास आई थी। और शायद यह सबकर के वो अपने प्रेमी डाॅ मोहम्मद को सबक सिखाना चाहती थी। हाॅलाकि डाॅ पुनीत को उनके आपस के झगड़े का कारण नहीं मालूम था।
    बहुत देर तक डाॅ पुनीत वतका को संात्वना देते रहे। देर रात होने पर वे बोले, ‘‘वतका, आज अपन दोनों नशे में है। और हो सकता है, तुम्हारा आपस का झगड़ा कल निपट जाये। ज़िन्दगी बहुत बड़ी है। गलतफहमियों को उनसे बड़ा मत होने दो। हाथ बढ़ाकर उन्होने वतका को उठाया और दरवाजे तक छोड़ने आये। गुडनाइट कहते ही वतका कब चली गई उन्हे पता ही न चला।
    दूसरे दिन फिर वही शाम का वक्त....... और वतका दरवाजे पर थी। भीतर आई। डाॅ पुनीत को थेंक्यू बोला और वापस चली गई। वतका और डाॅ मोहम्मद का झगड़ा सुलझ गया था। लेकिन यह थैंक्यू दिल की गहराइयों से बोला गया थैक्यू था। डाॅ पुनीत को कुछ याद आया अपने वाले से नाराज होकर बेवफाई न करना। हाॅ जिस दिन मुझसे प्यार हो और दूसरा कोई बीस में न हो तो बात और है।
    ‘इकबाल’ ने क्या सही कहा है-
    उड़ने दे उन परिन्दों को आजाद़ फिजा में मालिक,
    जो मेरे अपने होंगे वो लौट आयेंगे किसी रोज़।
        ‘गालिब’ ने जवाब दिया-
    न रख उम्मीदे-वफा किसी परिन्दे से ‘इकबाल’
    जब पर निकल आते हंै अपने भी आशियां भूल जाते है।
        गालिब ने और भी कहा है-
    खुदा की मोहब्बत को फना कौन करेगा।,
    सभी बन्दे नेक हों तो गुनाह कौन करेगा!
ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्ग्
एक डाक्टर एक नर्स
    आज सुबह से ही डाॅ निखिल अपने हस्पिटल में व्यस्त थे। मरीज थे कि आते ही जा रहे थे। डाॅ निखिल 35 साल के बहुत खुशमिजाज और मेहनती डाॅक्टर थे। वे सर्जन थे और उनकी पत्नि गायनीकालाजी स्पेशलिस्ट। डाॅ निखिल अपने मरीज के लिये जी जान लगा देते थे। वे उनसे भावनात्मक रूप से जुड़ जाते थे। मरीज को नींद न आ रही हो तो वे भी सो नही पाते थे।
    इतने व्यस्त रहते फिर भी चेहरे पर एक शिकन न पड़ती। डाॅ. निखिल अभी मरीज देख ही रहे थे कि उनकी पत्नि ने आकर कहा। एक सीजेरियन करना है। एनेस्थेटिस्ट 1 घन्टे बाद आयेगा। मरीज निबट जाये तो ऊपर आकर थोड़ा खाना खा लेना। सीजेरियन में मदद तो आपको ही करनी है। डाॅ निखिल बोले ओके! फिर से मरीज देखने लग गये। हास्पिटल के ऊपर ही उनका घर था। दो बच्चे थे।
    डेढ़ घन्टे बाद वे सीजेरियन आप्रेशन शुरू कर पाये। 45 मिनट में वे आप्रेशन शुरू कर पाये। 45 मिनट में वे आप्रेशन थियेटर के बाहर थे। बच्चा जच्चा दांेनों स्वस्थ थे।
    ऊपर घर में पहुँच कर जैसे ही डाॅ निखिल आराम करने के लिऐ लेटे, उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। वे आप्रेशन के दौरान यह देखकर मन ही मन खुश हो रहे थे कि जब भी उनका हाथ नर्स के हाथ से टकराता था तो नर्स मुस्कुराती थी। यह मुस्कुराहट डाॅ. निखिल उसकी आँखों में देखकर महसूस करते। चेहरे पर तो मास्क बँध हुआ था। हाँलाकि हाथों में भी ग्लोव्ज पहने हुए थे। फिर भी वे उस स्पर्श को महसूस कर सकते थे।
    डाॅ साहब दूसरे दिन सुबह समय से पहले ही हास्पिटल पहुँच गये। उन्होने सोचा अगर उनकी पत्नि कुछ पूछेगी तो कोई बहाना बना देंगे। जैसे मरीज ने बुलवाया था या कुछ और। उद्देश्य उनका राजश्री से बातें करने का था। राजश्री वही नर्स थी। दुबली पतली थोड़ी अध्कि लम्बी, सांवले से रंग की छरहरी लगभग 22 साल की उम्र की जो 20 की दिखती थी। उन्होने नर्स को अपने चेम्बर मंे बुलाया। सबसे पहले पूछा, ‘‘तुम्हारे घर में कौन-कौन है’’ राजश्री ने बताया ‘‘एक छोटी बहिन और मम्मी-पापा।’’ डाॅ. ‘‘पापा क्या करते है?’’ राजश्री ‘‘वे बिल्डिंग बनाने के कांट्रेक्टर ;ठेकेदारद्ध है।’’ डाॅ ‘‘और मम्मी?’’ राजश्री ‘‘वे हाउस वाइफ है।’’ डाॅ-और छोटी बहिन?’’ राजश्री - ‘‘वो पढ़ रही है। एक भाई था, उसकी एक्सीडेंट में मौत हो गई। डाॅ.‘‘ओह!’’ डाॅ निखिल बकायदा नोट कर रहे थे कि राजश्री अपनी आँखों से मुस्कुराती जा रही थी-लगातार। उनकी इच्छा हुई कि उठकर उसकी आँखों पर अपने होंट रख दें। लेकिन उनकी हिम्मत न हुई। कहीं राजश्री ने चिल्ला दिया या अचानक कोई तमाशा खड़ा कर दिया तो उनकी इज्जत उनकी साख सब ध्ूल में मिल जायेगी।
    उन्होने मन ही मन निश्चय किया कि आज के ही दिन अगले सप्ताह इसी दिन इसी समय वे उसके हाथ का चुम्बन लेंगे। उसकी प्रतिक्रिया देखेंगे। तब तक वे उससे सिर्फ आत्मीयता बढ़ायेंगे। और उन्होने किया भी यही। लगातार एक सप्ताह तक वे रोज उससे आध्े घन्टे या कभी-2 दो-दो घन्टे बाते करते। डाॅ निखिल राजश्री की तिरछी आँखें करके मुस्कुराने के कायल हो गये थे। वे नहीं जानते थे कि वो बात दिललगी से शुरू हुई वो कहाँ जाकर खत्म होने वाली थी?और यह सब हो रहा था उनकी पत्नि की नाक के नीचे। बिचारी पत्नि को कुछ भी मालूम न था। भविष्य के गर्भ में क्या छुपा था। यह किसी को मालूम न था। हाँलाकि डाॅ. निखिल की शादी भी लव-मैरिज ही थी। उसके लिये भी उनको काफी पापड़ बेलने पड़े थे। उनकी पत्नि उनकी क्लासफेलो थी। यों कहते है न कि ए मैन इज़ नाॅटी एज दी सज आफ फाॅटी ;श्। उंद पे दंनहीजल ंज जीम ंहम व िवितजलश्द्ध डाॅ साहब के लिये बिलकुल सही था।
    अगले सप्ताह डाॅ निखिल को कोई मौका ही न मिला कुछ बोलने का। सुबह-सुबह उन्हे एक मरीज के घर पर देखने जाना पड़ा। काफी समय लग गया। मरीज की हालत भी गम्भीर थी, पूरे दिन वे मरीज में ही व्यस्त रहे। लेकिन दूसरे दिन सुबह वे जल्दी उठकर तैयार हो गये। परफ्रयूम वगैरह लगाकर अपने चेम्बर में आकर बैठ गये। जल्दी ही राजश्री भी उनके चैम्बर में थी। उन्होने देखा राजश्री पहले जैसी चुस्त-दुरूस्त और चुलबुली और हँसमुख दिख रही थी। फिर से वो नजरे टेढ़ी करके उनकी तरफ देखकर मुस्कुरा रही थी। साथ मंे बाते भी करती जा रही थी।
    आज डाॅ निखिल अपने आपको न रोक पाये। उन्होने सोचा, अभी नहीं, तो कभी नहीं। डाॅ निखिल का दिल जोर से जोर से ध्ड़क रहा था। कहीं मन की गहराई में वे अभी भी डरे हुए थे। लेकिन अचानक वे उठे और टेबल के दूसरी तरफ जाकर राजश्री का हाथ चूम लिया। वह कुछ न बोली। उसकी मुस्कुराहट पहले जैसी बरकरार थी। डाॅ निखिल ने हिम्मत कर उसे कुर्सी से उठाया और सीने से लगा लिया। बस वो इतना ही बोली, ‘‘मैडम आ जायेगी, छोड़ो।’’ डाॅ साहब उससे अलग हुए और अपनी चेयर पर जाकर बैठ गये। वे बोले, ‘‘क्यों न शाम 6 बजे अपन दोनों कहीं घूमने चले। राजश्री बोली ‘‘मैडम को क्या बोलेंगे?’’ डाॅ साहब बोल, ‘‘कुछ भी बहाना बना दूँगा जैसे किसी मरीज को देखने पास के कस्बे में जाना है। ‘‘राजश्री ने हामी में सिर हिला दिया। मिलने का स्थान और समय निश्चित करके राजश्री अपने काम में लग गई और डाॅ साहब भी मरीजों में व्यस्त हो गये।
    मौके की बात है कि उस दिन शाम को मरीज भी कम थे। 5ः45 बजे डाॅ साहब कार से निकल पड़े। अपनी पत्नि को उन्होने वही कहा जा सोचा था। बाहर कस्बे में मरीज देखने जा रहा हूँ। मिलने का निश्चित स्थान 10 मिनट की दूरी पर था। लेकिन डाॅ साहब मन ही मन भगवान को याद कर रहे थे कि राजश्री तय समय पर वहाँ मिल जाये। जिस जगह पिक-अप करना था, वो बाहर जाने वाली बसों का अस्थायी स्टाप था। उस चैराहे पर भीड़ भी अध्कि थी। डाॅ सहाब ने चैराहे का चक्कर काटा लेकिन राजश्री वहाँ खड़ी नही थी। डाॅ साहब थोड़ी दूर दूसरी सड़क पर आगे चले गये। फिर कार मोड़कर उसी चैराहे पर आये, तो भी राजश्री नहीं थी। वे निराश हो चले थे। उन्होने घड़ी देखी। ठीक 6 अब बजे थे। वे कार को साइड मंे लगाकर थोड़ी देर वही इन्तजार करने लगे। टेंशन में वे पास की दुकान से एक सिगरेट सुलगा कर ले आये। 6 बजकर 10 मिनट पर उनका सब्र का बाँध् टूट गया। जैसे ही उन्होने कार स्टार्ट की, अचानक राजश्री दूसरी तरफ कार का दरवाजा खोल रही थी। चुपचाप ध्ीरे से वो अन्दर आकर बैठ गई। डाॅ साहब की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। लेकिन कार चलाते ही उन्होने पूछा- ‘‘लेट कैसे हो गई’’। राजश्री बोली- ‘‘मुझे आटोरिक्शा ही नहीं मिल रहा था। बड़ी मुश्किल से मिला तो मैं आई।’’
    डाॅ. निखिल ने कार चला तो दी, लेकिन उनको कोई अनुमान नहीं था कि अब जाना कहाँ है। उन्होने राजश्री से पूछा, वो बोली ‘‘20 कि0मी दूर एक बहुत बड़ा बगीचा है अमरूदों का। वहीं चलते है। ‘‘वो बगीचा डाॅ साहब ने भी देखा था। दो एकड़ में फैला बहुत घना बगीचा था। चारों और अमरूद के दरख्त ही दरख्त थे।
    आध्े घन्टे बाद वे दोनों उस बगीचे में थे। एक विशाल पेड़ की नीचे बैठकर बातंे कर रहे थे। राजश्री का हाथ डाॅ साहब के हाथों में था। और वे उससे खेल रहे थे। थोड़ा-थोड़ा अँध्ेरा होने लगा था। सांझ के रंग आसमान पर बिखरे हुए थे। डाॅ साहब ने अपने होंठ राजश्री के होंठों पर रख दिये। राजश्री के होंठ थरथरा रहे थे। शाम के रंग प्यार के रंगों में गड़मड होने लगे। रात 8 बजे तक वे वहीं बैठे रहे। कभी बातें करते तो कभी प्यार। राजश्री बात कर रही होती तो डाॅ साहब अपने होंठ उसके होंठों पर रखकर बोलते अब बोलो। फिर दोनों हँसने लग जाते। अन्त में राजश्री ने कहा कि घर चलो नहीं तो मैडम आपकी परेड ले लेगी। यह सुनते ही डाॅ साहब उठ खड़े हुए और एक दूसरे को थामे हुए वापसी के लिये चल पड़े।
    डाॅ निखिल बड़ी कशमकश में थे। उन्हे राजश्री का सानिध्य दिल से अच्छा लगता था। दूसरी तरफ वे अपनी पत्नि को धेखा भी नहीं देना चाहते थे। हाँलाकि उनकी प्रकृति बहुत अध्कि सोच विचार की थी। न उन्हे इसकी चिन्ता थी कि भविष्य पर क्या असर पडे़गा इन सब बातों का? वो अपने वर्तमान से खुश थे। आदमी को स्वयं को धेखा देना या खुद को धेखे में रखना मुश्किल होता है। फिलहाल तो उन्हे यह लग रहा था कि वे बहुत खुश है और हवा में उड़ रहे हैं हर छोटे-बड़े कामों में उनका उत्साह दस गुना अध्कि था। वे गुनगुनाने लगे थे। बहुत दिन से छूटे हुए अपने शौक फिर से उभर आये थे। वायलिन फिर से उनके हाथ में था। वे नई-नई ध्ुने निकालने लगे थे।
    अक्सर ही मोबाइल पर उनकी राजश्री से ढेर सारी बातें होने लगी। उनके मन में यह जानकर और भी गुदगुदी होती कि राजश्री का हाल भी वही था जो उनका था।
    अब सप्ताह में कम से कम दो बार वे अक्सर मिलने लगे। डाॅ कभी-कभी डाॅ निखिल सोचते कि वे अपनी पत्नि से बेवफाई नहीं करना चाहते, लेकिन राजश्री से प्यार करना ही बेवफा होना है। वे अपनी पत्नि को भी दिलो-जान से चाहते थे और राजश्री के लिये भी कुछ भी करने को तैयार थे। पत्नि में जो कि पूर्व प्रेमिका भी थी, उनका दिल-आत्मा और प्रेरणा थी और राजश्री उनके दिल की ध्ड़कन! कब राजश्री आँखों से दिल में उतर गयी उनको पता ही न चला।
    शहर से 30 कि0मी0 दूर अब वे एक डाक बंगले पर जाने लगे थे। डाक-बंगले के चैकीदार को 200 रूपये दे देते और वह उनके लिय साफ-सुथरा सजा-सजाया कमरा खोल देता। घन्टे-दो-घन्टे वे मस्ती मारकर वापस घर चले जाते। हास्पिटल में दोंनांे ऐसा बर्ताव करते जैसे एक दूसरे को जानते भी न हांे। चोरी का गुड़ कुछ ज्यादा ही मीठा होता है। चोरी भी ऐसी जो पकड़ी न जाये। लेकिन चोरी तो चोरी है-कभी न कभी पकड़ा जाती है। और हुआ भी यही।
    दो साल बीत गये थे। एक दिन डाॅ निखिल और राजश्री घर से डाक-बंगले की तरफ जा रहे थे कि एक डाक्टर दोस्त ने उन्हे देख लिया। वो कार से वापस शहर जा रहे थे। उन्हांेने इन्हे रूकने का इशारा भी किया था। लेकिन डाॅ निखिल बिना रूके निकल गये थे। यह दोस्त डाॅ निखिल और उनकी पत्नि का क्लासफेलो था और अक्सर ही उनके घर आया-जाया करता था। बस फिर क्या था। उसने जाते ही डाॅ निखिल की पत्नि को फोन कर पूछा- ‘‘डाॅ निखिल एक नर्स के साथ कहाँ जा रहे थे?’’ डाॅ निखिल की पत्नि ने कहा, ‘‘मुझे तो यही बोलकर गये थे कि मरीज देखने जा रहा हूँ पास के कस्बे में। लेकिन नर्स को साथ लेकर जायेंगे ऐंसी तो कोई बात नहीं हुई।’’ खैर इसके आगे वे कुछ न बोलीं।
    उसी दिन शाम को डाक-बंगले से आते समय जो कुछ राजश्री ने उनको बताया उससे भी डाॅ निखिल आश्चर्यचकित थे। लेकिन राजश्री की बातों से डाॅ निखिल का प्यार-दुलार उसके लिये और बढ़ गया था। प्यार के साथ-2 सहानुभूति भी महसूस करने लगे थे।
    राजश्री ने अपने परिवार के बारे में बताया। राजश्री के पिता श्री की मौत के बाद उनकी मम्मी ने दूसरी शादी की। स्टेप फादर जो घर और बिल्डिंग बनाने के ठेके लेते हैं- ठेकेदार यानि कांटेक्टर है। वर्तमान के पिता श्री पहले से ही शादी शुदा थे। पहली पत्नि से उनके दो बेटे और एक बेटी है। ये तीनो मेरे स्टेप भाई-बहन हैं। मेरे स्टेप फादर बहुत ज्यादा शराब पीते हैं और फिर नशे में मेरी माँ पर हाथ भी उठा देते हैं। माँ अक्सर बहुत दुखी रहती है। लेकिन वो इससे खुश है कि उनके वर्तमान पति उन्हे ज्यादा समय देते है और रात को सोते भी यहीं है। और घर में किसी चीज की कमी नहीं होने देते लेकिन मेरी माँ को मुझपर शक है।
    डाॅ निखिल ने पूछा किस बात का शक है। राजश्री बोली ‘वे समझती है कि मेरे संबंध् मेरे स्टेप फादर से है। माँ रात को उठ उठकर चेक करती रहती है कि कहीं मैं तो उनके पति के साथ नहीं सो रही।’’ और इस बात से मैं बहुत परेशान हूँ और घर छोड़कर भाग जाना चाहती हूँ। लेकिन जाऊँ भी कहाँ? कभी सोचती हूँ दूसरे शहर जहाँ मैंने ट्रेनिंग ली वहाँ चली जाऊँ। वहाँ एक पोलिस वाला मेरा दोस्त है। लेकिन फिर सोचती हूँ कि जो अगर वो मेरे वहाँ जाने से खुश न हुआ तो? तो मैं क्या करूँगी? घर भी छूट जायेगा। एक अकेली लड़की का दुनिया में रहना कितना मुश्किल है। कभी सोचती हूँ कि आप डाॅ साहब ही मुझे किसी किराये घर में रख लो। और इसी तरह अपन मिलते-जुलते रहें। शादी तो आप मुझसे कर न पायेंगे। रखैल बनकर ही रह लूँगी। कभी सोचती हूँ कि शायद कभी ऐंसा ही कि आप अपनी बीबी को तलाक देकर मुझसे शादी कर लो। अब आप बोलिये डाॅ साहब आपका क्या कहना है? ‘‘यहाँ तक कि कभी मैं सोचती हूँ आत्महत्या कर लूँ सारा झंझट ही खत्म। डाॅ निखिल कुछ देर सोचते रहे फिर बोले ‘‘राजश्री तुम मुझ से उम्र में 13-14 साल छोटी हो। और मैं अपनी पत्नि से भी उतना ही प्यार करता हूँ जितना तुमसे। मेरे लिये उसको छोड़ना उतना ही मुश्किल है जितना तुम को उपर से मरे दो बच्चे भी हैं उनके भविष्य का भी मुझे सोचना है। हाँलाकि तुम्हारा-मेरा प्यार व्यभिचार की श्रेणी में आता है। लेकिन मेरे लिये मन-आत्मा की गहराइयों से भी पवित्रा है। मेरे लिये यह अमृत-साध्ना है। इस प्यार की वजह से मुझे अपने होने के वजूद का अहसास हुआ। मैं खुले आकाश में बिना पंखों के आजाद उड़ पाया। मेरा परिचय एक असीम से हुआ। और तब पता लगा कि मैं हूँ। मेरी आत्मा है। परमात्मा है। लेकिन जब आकाश से वापस मैं जमीन पर आता हूँ तो लगता है इस बारे में कुछ न सोचूँ, कुछ न करूँ। जो जहाँ जैसा है वहाँ अच्छा है और वहीं शायद ठीक भी है। जब अफसाना अन्जाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इस खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ना अच्छा। इसके आगे मैं यह कभी न कहँूगा- कि चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों। मरूस्थल में मृग-मारीचिका-सुदूर पानी दिखने का भ्रम-ज्यादा अच्छा है बनिस्बत कुछ भी न होने का अहसास या सिर्फ रेत के बवन्डरों को डरावने पन का अहसास। काश मरूस्थल में दूर मृग-मारीचिका की जगह पानी ही हो। जन्म जन्मों की प्यास तो बुझे। आशा की एक नन्ही किरण मन के अँध्ेरों को दूर कर देती है।
    डाॅ साहब वैसे इतनी बड़ी-2 बातें कर रहे थे। लेकिन कुछ ही दिन पहले की बात है जब डाॅ साहब अत्याध्कि डर गये थे। हुआ यों कि वे दोनों डाक-बंगले की तरफ जा रही थे कि अचानक राजश्री ने कहा कि कार सीध्े चलाते रहो। डाक-बंगले की तरफ मत मुड़ना। डाॅ साहब बोले -‘‘क्या हुआ?’’ बोली अपने पीछे मोटर साइकिल पर एक सब इंस्पेक्टर आ रहा है। वो हमारा पीछा कर रहा है। डाॅ साहब ‘‘तुम कैसे कह सकती हो?’’ हो सकता है वह यों ही जा रहा हो कहीं।’’ ‘‘राजश्री’- ‘‘नहीं वह अपने पीछे ही है। 100 प्रतिशत’’ डाॅ साहब- ‘‘इतने विश्वास से कैसे कह सकती हो?’’ राजश्री बोली, ‘‘मेरे स्टेप फादर को अपने बारे में पता चल गया है। उन्होने इस सब इन्सपेक्टर को बोला है अपने पर नज़र रखने के लिये। यह सबइन्सपेक्टर मेरे स्टेप फादर का दोस्त है और कभी-2 घर भी आता है दारू पीने के लिये। ‘‘डाॅ साहब ने गाड़ी नहीं मोड़ी। उस दिन वे बिना डाक बंगले गये वापस घरचले गये थे। तभी से वे दोनों बहुत सावधन थे। डाॅ निखिल ने सोचा जो अगर सबइन्सपेक्टर पकड़ लेता, तो दूसरे दिन यह खबर अखबारों की हेडलाइन में होती। और डाॅ साहब समाचार पत्रों और चैनलों वालों से पुलिस थाने में घिरे होते। तब सबको रिश्वत देने के लिये भागदौड़ कर रहे होते। दोनों ने शुक्र मनाया कि वे बाल-बाल बचे। बाद में राजश्री ने बताया था कि वो इन्सपेक्टर बाद में शराब पीकर उसके पापा को बता रहा था कि अपन दोनों उसके हत्थे नहीं चढ़े नहीं तो वो देख लेता।
    शाम को डाॅ निखिल ने राजश्री को उसके घर से थोड़ी दूरी पर छोड़ दिया। घर पहुँचे। एक और तूफान उनके इन्तजार में था जिसका अंदेशा उन्हे बिलकुल नहीं था।
    घर में घुसते ही उनकी पत्नि ने कहा- ‘‘जरा बेडरूम में चलो। ‘‘पत्नि की आवाज में गुस्सा नफरत और हिकारत मिली हुई थी। बेडरूम का दरवाज बन्द करके वो बोली, ‘‘कहाँ गये थे  पिछले 3 घन्टे से?’’ डाॅ निखिल- ‘‘दो घन्टे।’’ पत्नि -‘‘दो या 3? पहले बताओ थे कहाँ? ‘‘डाॅ निखिल -पास के कस्बे में मरीज देखने गया था।’’ पत्नि- ‘‘किसके साथ गये थे?’’ डाॅ साहब समझ गये थे कि उनके दोस्त ने चुगली कर दी है। बोले- ‘‘राजश्री नर्स को लेकर गया था।’’ पत्नि ‘‘नर्स को ले जाने की क्या जरूरत थी?’’ डाॅ साहब- ‘‘मरीज को जरा लगता बड़े अस्पताल के बड़े डाॅ साहब आये है।’’ ‘पत्नि-‘‘झूठ मत बोलो। मुझे बताओ यह सब कब से चल रहा है?’’ अनजान बनते हुए डाॅ निखिल - ‘‘क्या ये सब?’’ अब उनकी पत्नि का पारा सातवें आसमान में था और वो चिल्लाने लग गई थी। साथ ही दहाड़े मारमार के रोये जा रही थी। साथ में चीजे उठा-2 कर फेंकने लगी थी। बोले- मेरी लाश पर से निकल कर जाना अब उस नर्स से मिलने के लिये। मुझे इस घर में नही रहना। मैं समझती थी यह घर मेरा है। मुझे तुम्हारे साथ हर्गिज नहीं रहना। मुझे अभी के अभी तलाक चाहिये तुमसे। तुम जाओ- उसी के साथ रहो। ‘‘फिर बोलने लगी-’’ मैं क्यों जाऊँ इस घर से। यह घर मेरा भी तो है। मैंने भी इसे मेहनत से बनाया है तुम निकालो यहाँ से हिम्मत है तो वापस मत आना इस घर में।’’
    डाॅ साहब का चेहरा उतर गया था। उनके होंठ सूख गये थे। उनकी सख्त इच्छा हो रही थी कि कहीं भग जायें। चुपचाप उठे दरवाजा खोला और कार में बैठकर निकल गये। उन्हे मालूम भी न था वे कहाँ भटक रहे थे। आध्े घन्टे बाद दूर एक ढाबे पर उन्होने कार रोकी और व्हिसकी पीने बैठ गये। साथ में उन्होने सिगरेट भी जला ली। एक सिगरेट से दूसरी सिगरेट सुलगाते जा रहे थे और लगातार पी रहे थे।
    3 घन्टे बाद वे शराब के नशे में घर पहुँचे। घर के सार दरवाजे, खुले हुए थे। उनकी पत्नि गहरी नींद मंे सो रही थी। लेकिन साथ ही वह बहुत गहरी गहरी सांसे ले रही थी। डाक्टर साहब ने ध्ीरे से उसका हाथ उठाया और छोड़ दिया। हाथ पलंग के नीचे की तरफ गिर गया। लेकिन उसकी नींद पर कोई असर न हुआ। उन्होने फिर से वैसा ही किया। लेकिन कोई असर नहीं। उनकी पत्नि का चेहरा एक तरफ था। उन्होने चेहरा पलट कर देखा तो मुँह में थोड़े झाग थे। अब उनको शंका हुई कहीं जहर तो नहीं खा लिया। उन्होने जल्दी से दूसरे कमरे में जाकर बच्चो को जगाया। उनसे पूछा उन्होने बताया- ‘‘मम्मी नीचे हास्पिटल में गई थी और कोई गोलियाँ लेकर आई थी। पानी से उन्होने बहुत सारी गोलिया खा ली थी। फिर वो सो गई।
    डाॅ निखिल समझ गये। वे नींद को गोलियाँ गार्डीनाल ही थी। फिर उन्होने पत्नि की आँखों की पुतली देखी। वो सिकुडी हुई थी। अब डाॅ साहब को पक्का विश्वास हो गया कि वो गार्डीनाल ही थी। उनका नशा काफूर हो चुका था। जल्दी से उन्होने नीचे फोन करके स्टाफ को बुलाया और हिदायत दी कि स्टमक वाश ;पेट धेने काद्ध सारा सामान लेकर उपर आये। स्टमक वाश करने पर सफेद पाउडर निकला जो कि वहीं गोलियाँ थी। इसके बाद उन्होने सेलाइन की बाटल लगा दी और हाथ पकड़कर बैठ गये। स्टमक वाश के लिय नाक से पेट में ट्यूब डालने के लिये उनको काफी जद्दोजहद करनी पड़ी। उनकी पत्नि भी दर्द से कराह रही थी। कराहना सुनकर डाॅ साहब को थोड़ी राहत महसूस हुई थी। क्योंकि दर्द हुआ इसका मतलब अभी वो गहरे कोमा में नहीं गई। गहरे कोमा में दर्द का अहसास बहुत ही कम हो जाता है। इसमें कब मृत्यु हो जाये कोई नहीं जानता।
    डाॅ साहब को विश्वास था कि सुबह तक उनकी पत्नि को होश आ जायेगा। लेकिन दूसरे दिन शाम को उन्हे कुछ होश आया और उन्होने पानी मांगा। डाॅ साहब ने अस्पताल से सब मरीज लौटा दिये थे अपने भी और अपनी पत्नि के भी। शाम को उनको कुछ राहत महसूस हुई तो डाॅ साहब को भी एक झपकी लग गई। काफी देर बाद उनकी झपकी खत्म हुई तो उन्होने उठकर सेलाइन की बाटल बदली। बच्चो को उन्होने स्कूल भिजवा दिया था। बच्चे चिन्ता न करें इसलिये उन्हो बोल दिया मम्मी को थोड़ी कमज़ोरी हो गई है शाम तक ठीक हो जायेगी। दूसरे दिन सुबह उनकी पत्नि पूरे होश में थी। ये 36 घन्टे डाॅ निखिल ने कैसे काटे वे ही जानते हंै।
    होश में आने पर सबसे पहले उनकी पत्नि ने उनसे कहा ‘‘मेरे सिर पर हाथ रखके मेरी और बच्चो की कसम खाओ कि आज के बाद उस नर्स से कोई संबंध् नहीं रखोगे।’’ डाॅ साहब के पास कोई चारा ना था। उनको कसम खानी पड़ी। मौका मिलते ही दूसरी रात को उन्होने राजश्री को फोन कर दिया कि वो न तो अस्पताल ड्यूटी पर आये न ही उनसे मिलने आये। बाद में वे किसी दिन इसका कारण बतायेंगे। उनके मन से मनो बोझ उतर गया। लेकिन राजश्री का चेहरा और उसकी याद और उसकी वह निश्छल हँसी एक टीस बन कर उनके दिल में बैठ गई। कभी भी वह नश्तर के समान चुभने लगती। वे उस असहाय लड़की की कोई भी मदद, चाहते हुए भी न कर सके।
    उनको डर था कि राजश्री कहीं वापस अपने टेªनिंग वाले शहर में उसी पोलिस दोस्त के पास न चली जाये। पुलिस वालों को क्या भरोसा? कहते हैं न पुलिस वाले चोरों से बड़े-चोर और बदमाशों से भी बड़े बदमाश होते हंै। न उसकी दोस्ती अच्छी न दुश्मनी।
    डेढ़-दो मास गुजर गये। सब कुछ ठीक हो गया। जिन्दगी फिर से अपने कल को कमाने के लिय आज को दाव पर लगाने लगी। इस बीच डाॅ निखिल की उत्कट अभिलाषा थी कि वे राजश्री के बारे में कुछ जाने। दो माह बाद बड़े डरते-डरते अपने घर से 2 कि0मी दूर जाकर शाम को घुघलके में डाॅ निखिल ने राजश्री को फोन लगाया। फोन शायद उसकी माँ ने उठाया। माँ ने पूछा - ‘‘कौन बोल रहा है’’ डाॅ- ‘‘मैं डाॅ निखिल।’’ माँ- ‘‘अच्छा, राजश्री बाथरूम में है, अभी आती है, तो बात कराती हूँ।’’ 5 मिनट बाद राजश्री का फोन आ गया। डाॅ निखिल ने पूछा- ‘‘कैसी हो?’’ राजश्री - ठीक हँू। आप कैसे हंै? ‘‘डाॅ- मैं ठीक हूँ।’’ राजश्री-‘‘और मैडम?’’ डाॅ वो भी ठीक है। ‘‘एक क्षण को सन्नाटा पसर गया। फिर डाॅ निखिल ने ही शुरूआत की ‘‘तुम्हारी शादी का क्या हुआ?’’राज श्री- ‘‘कुछ नही।’’ डाॅ- ‘‘कोई बायफ्रेन्ड?’’ राजश्री ‘नहीं।’ डाॅ ‘‘क्यों?’’ राज श्री- बस यों ही। डाॅ- ‘‘मेरी याद आती है?’’ राजश्री - ‘भूली ही कब थी जो याद आये।’’ यह बात सच है कि प्यार कभी मरता नहीं। दिल के किसी कोने में छुप जाता है। जरा सा कुरेदो और उसके जख्म, उसका दर्द, उसकी शियत, उसकी अनिर्वचनीय प्यास उभरने लगती है। बस बुझी हुई चिन्गारी की राख हटाने की देर है चिन्गारी फिर सुलगने लगती है।
    डाॅ निखिल बोले- ‘‘तुम्हारे बारे में कुछ जानना हो कि तुम कैसी हो, कहाँ हो, तो किससे पूछूँ?’’ राजश्री ‘‘मुझसे’’। डाॅ-मेरा मतलब है तुम्हें फोन करना मुमकिन न हो यानि तुम्हारे घर वाले, मेरे घर वाले - सब बीच में हों तो?’’ आपके अस्पताल में जो कान्ता नर्स है उससे। वह मेरी अच्छी सहेली है। ‘‘डाॅ साहब ने ‘‘बाय-बाय, आल द बेस्ट’’ कह कर फोन काट दिया। न राजश्री ने पूछा मिलने के बारे में न डाॅ साहब ने। डाॅ साहब पूछते भी तो कैसे। वे बहुत देर तक मोबाइल को हाथ में पकड़े खड़े रहे। उन्हे जिगर का वो शेर याद आ रहा था।
        दिल है कदमों पर किसी के
        सर झुका हो या न हो
    बन्दगी तो अपनी फितरह है,
    खुदा हो या न हो।
    यह जुनूं भी क्या जुनंू, यह हाल भी क्या हाल है,
    हम कहे जाते हैं, कोई सुन राह हो या न हो।
    डाॅ निखिल घर पहुँच कर अपनी डायरी लेकर बैठ गये। बहुत देर तक न जाने क्या ढूंढते रहे। थक-हार कर वे सो गये।
    छः माह के अन्दर ही उन्हे विदेश जाने का मौका मिल गया। पत्नि ने उनकी अनबन चलती ही रहती थी। पहले जैसे मध्ुर संबंध् फिर न बन पाये। हर बात में उनकी पत्नि शक करती थी। विश्वास की डोर एक बार टूट जाये तो वैसी की वैसी नहीं जुड़ सकती। फिर यह तो पति-पत्नि का रिश्ता था।
    अजब मुकाम पे ठहरा हुआ है,
        काफिला जिन्दगी का।
    सुकून ढूंढने चले थे
        नींद ही गंवा बैठे।
    डाॅ निखिल विदेश चले गये। बहुत बड़ा अस्पताल, नये लोग, नई संस्कृति, नये रीति-रिवाज। सब कुछ उनकी दुनिया से अलग। नई पीढ़ी में हशीश और हेरोइन जैसी ड्रग्स का चलन। एक खुलापन। किसी को किसी को देखने की फुर्सत नहीं। सब अपने आप में व्यस्त। स्वयं तक सीमित। हर साल-दो साल में वे स्वदेश लौटते। सीमित छुट्यिों में भी बहुत व्यस्त रहते। कितनी ही बार सोचा की राजश्री के बारे में पता करें। लेकिन कुछ न कर पाये। वो मोबाइल नम्बर भी बदल गया था। जिस पर कभी वो घन्टों बाते किया करते थे। न ही वह कान्ता नर्स थी उनके हास्पिटल में। हर बार वे राजश्री के घर के चक्कर जरूर लगाते लेकिन घर में घुसने की हिम्मत न होती। फिर उनको पत्नि द्वारा दी हुई कसम भी रोक लेती उनके बढ़ते कदमों को।
    उनको राजश्री का अन्तिम मैसेज याद आता है-
    मुहब्बत बेवफाई के सिवा कुछ भी नहीं।
    ज़िन्दगी गम के सिवा कुछ भी नहीं।
    उनके पास हमोर सिवा सब कुछ हैं,
    पर हमारे पास उनके सिवा कुछ भी नहीं।
    11 साल बाद डाॅ निखिल अपने देश लौट आये। दो-चार दिन बाद ही उन्होने ठान ली कि राजश्री का पता लगा कर ही रहेंगे।
    बहुत ढूंढने पर कान्ता मिली। वह भी दूसरे अस्पताल में काम कर रही थी। डाॅ निखिल को अत्याध्कि उत्कंठा थी राजश्री के बारे में जानने की। जल्दी जल्दी सबकुछ जान लेना चाहते थे। कान्ता ने जो बताया वह कम दर्दनाक नहीं था। उसने बताया कि डाॅक्टर साहब आपके विदेश जाने के बाद वो किसी उचित साथी की तलाश कर शादी करना चाहती थी। स्टेप फादर और माँ से कोई आशा उम्मीद नहीं थी। छः माह में उसको सरकारी नौकरी मिल गई थी। और वो एक छोटे कस्बे में जाकर रहने लगी। वहीं उसकी एक टेम्पो चलाने वाले से दोस्ती हो गई। दोस्ती ध्ीरे-ध्ीरे प्यार में बदल गई। इसी दौरान वह प्रेग्नेंट हो गई। अब उसके पास और कोई चारा नहीं था सिवा इसके कि वो टेम्पो वाले से शादी कर लें।
    एक सादे से सामारोह में राजश्री ने टेम्पो चालक से शादी कर ली। 8 माह बीतते न बीतते राजश्री ने एक बच्ची को जन्म दिया। बच्ची स्वस्थ थी। शादी के दो साल बाद राजश्री को पता चला कि उसका पति तो पहले से ही शादी शुदा है। और उसकी पहली पत्नि से दो बच्चे भी हंै।
    दूसरी शादी और दो औरतों मंे बँटा हुआ आदमी किसी स्टेंडर्ड का होता है? यह राजश्री को अपने स्टेप फादर को देखकर समझ आया था। दो नावों में पैर रखने वाला ना कहीं पहुँच पाता है ना उसको अपना गन्तव्य का समझ में आता है। सोचो उसकी स्वयं की माँ जननी उस पर शक करती थी कि राजश्री के संबंध् उसके स्टेप फादर से है। इससे और बड़ी सज़ा उसे क्या मिल सकती थी।
    वो सावधन थी कि डाॅ निखिल के बाद वह कभी किसी शादी-शुदा आदमी से दोस्ती नहीं बढ़ायेगी। ना ही उसे ऐसे आदमी पसन्द थे। लेकिन पता नहीं कैसे और क्यों उसने आपसे दोस्ती की थी और आपको दिलो जान से चाहती थी। कमज़ोरी के किसी क्षण में हम कभी अक्षम्य अपराध् कर जाते हंै और बाद में पछताते हैं। मनुष्य यह बखूबी जानता है कि वो किन चीजो से बच रहा है या दूर भाग रहा है, लेकिन कभी वह यह नहीं समझ पाता कि उसके किसकी तलाश है। ऐंसा कान्ता ने बताया।                          
    राजश्री को लगा था कि वो अपनी बिटिया को लेकर कहीं भी चली जाये, लेकिन सबकुछ कहाँ इतना आसान होता है। वो उसका टेम्पोवाला पति, उस छोटे कस्बे का दादा था। दूसरे राजश्री सरकारी नौकरी भी छोड़ना नहीं चाहती थी। वो इस नौकी से अपना अपनी बेटी का आराम से गुजारा कर सकती थी। लेकिन वो टेम्पोवाले के चुंगल में फँस चुकी थी। अस्पतला से ट्रांसफर के लिये उसने अर्जी भी दी। लेकिन पता नहीं कैसे उसके पति को पता चल गया। वो अर्जी लाकर उसने राजश्री के सामने फाड़ दी थी।
    अब उसका पति रात बिरात कभी भी दारू पीकर आ जाता और उसे मार-पीट कर जो भी चाहता वो करता। राजश्री ने भी इन परिस्थितियों से समझौता कर लिया था।
    कांता ने कहा-‘‘अब डाॅ साहब आप उससे मिलने कभी मत जाना। कभी उसके पति को पता चला गया तो राजश्री बेइज्जत होना पड़ेगा या फिर हो सकता है मार कुटाई हो जाये।’’
    डाॅ निखिल बोझिल मन, उदास थके हुए कदमों से अपने घर को चल दिये। जहाँ उनकी पत्नि और बच्चे उनकी राह देख रहे थे।
    कोई तो है जो फैसला करता है पत्थरों के मुकद्दर का
    किसे ठोकरों पर रहना है, किसे भगवान होना है।
                        इति

शोषण
पहला व्यक्ति जिसका सुबह उठकर आपको ख्याला आता है और अन्तिम व्यक्ति जिसका रात को आपको ख्याल आता है- या तो वो आपकी खुशी का कारण है या दर्द का।
    मुझसे प्यार करो या नफरत -दोनों मेरे पक्ष में हैं। जो अगर प्यार करोगे, तो मैं तुम्हारे दिल में हमेशा और नफरत, तो दिमाग में हमेशा रहूँगा।
    डाॅ निशिल और डाॅ. शैबी बैठकर आपस में बाते कर रहे थे। दोनों के फ्रलैट पास-पास थे। आना-जाना लगा रहता था। वीकऐन्ड में बैठक भी हो जाती थी। मारीशस के एक बड़े अस्पताल में दोनों काम करते थे। डाॅ निशिल नेत्रा रोग और डाॅ शैबी चर्म रोगों के विशेषज्ञ थे। दोनो को मारीशस आये ढाई साल हो चुके थे।
    बहुत बड़े-बड़े और सुन्दर आइलैंड ;टापूद्ध थे मारीशस में। समुद्री तट बहुत ही साफ-सुथरे थे। दूर तक नीला पानी दिखता था। चमकता हुआ सुदूर क्षितिज में आकाश और समुन्दर एक हो जाते। इसी तट पर वे दोनों रोज शाम को तैरने आते। रोज़ ही सूरज को समुन्दर में डूबते हुए देखते। फिर सन्ध्या के रंगों को पानी के दर्पण में देखते। वे रंग उनकी आँखों से दिल में उतर जाते। कभी-2 डाॅ निशिल तैरने के बाद अकेले समुन्दर किनारे बैठ जाते और आँखे बन्दकर लहरों के संगती का आनन्द उठाते। जिससे उनकी आत्मा विभौर हो उठती। डाॅ निशिल हिन्दू थे और डाॅ शैबी की माँ हिन्दू और पिता मुस्लिम थे। अभी दोनों डाॅक्टर बैठकर बातंे कर रहे थे। डाॅ शैबी अपने एक मरीज के बारे में बता रहे थे। डाॅ निशिल ने उनकी बात काटकर बीच में ही कहा- ‘‘क्यों भाभी नजर नहीं आ रही।’’ डाॅ शैबी- ‘‘अपनी सहेली से मिलने गई है। आती होगी।’’ डाॅ निशिल - ‘‘तो आज शाम की चाय आप ही बनाओ।’’ नो प्राब्लम ‘‘कहते हुए डाॅ शैबी चाय बनाने के लिये उठ गये।
    चाय की चुस्कियाँ लेते हुए डाॅ शैबी ने कहा। ‘‘मेरी एक फ्रेन्ड रशिया से आ रही है। कुछ दिन मेरे साथ ही रहेगी।’’ डाॅ निशिल बोले, ‘‘भाभी को कोई ऐतराज तो नहीं होगा। अगर ऐतराज हो तो तेरी रशियन फ्रेन्ड को मेरे यहाँ ठहरा देंना।’’ डाॅ शैबी- ‘‘नहीं ऐसी कोई बात नहीं। बेगम को मैंने मायके भेज दिया है।’’ यह सुनकर डाॅ निशिल को अचरज हुआ। ‘‘भला ऐसा क्यों किया?’’ डाॅ निशिल अपने आपको यह बोलने से रोक नहीं पाये। डाॅ शैबी ने तुरन्त कोई जवाब न दिया। यह उनका व्यक्तिगत मामला था।
    डाॅ निशिल जानते थे कि डाॅ शैबी को अभी छः माह हुए हैं राशिया से 2 साल का कोर्स करके आये तभी तो वे चर्म रोग विशेषज्ञ बने। पहले तो वे सिर्फ एम.बी.बी.एस थे और हास्पिटल में मेडिकल आफिसर।
    डाॅ निशिल को बहुत उत्सुकता हो रही थी डाॅ शैबी के बारे में सब जानने की। लेकिन वे चुपचाप बैठे रहे। चाय खत्म करके वे अपने फ्रलेट की तरफ चल पड़े।
    डाॅ निशिल अकेले रहते थे। उनके दो बच्चे इन्डिया में थे। दस साल पहले उनकी पत्नि का इन्तकाल हो गया था। तब से कई बार डाॅ निशिल ने सैटल होने के लिये पुनर्विवाह का सोचा। लेकिन हर बार वे यह सोचकर कदम पीछे खींच लेते कि दोनो बच्चों को शायद उनकी दूसरी शादी रास न आये। हाँलाकि अपने बेटे की शादी वो कर चुके थे, लेकिन बेटी की करना अभी बाकी थी। उनकी बेटी को यह बिलकुल पसन्द न था कि उसके पापा दुबारा शादी करें। हाँलाकि बेटे को कोई एतराज न था। कभी डाॅ निशिल सोचते कि बेटी की शादी के बाद वे सेटल होने की सोचेंगे।
    हाँ इस बार डाॅ निशिल के दिमाग में एक बात और थी कि वे लेडी डाक्टर से शादी नहीं करेंगे। जो अगर पति-पत्नि दोनो डाॅक्टर हों तो एक दूसरे के लिये समय निकालना मुश्किल हो जाता है। फिर डाॅ निशिल थे भी विदेश में। लेकिन वे शादी इन्डिया में ही करना चाहते थे। हाँलाकि बहुत सारे विदेशी उनके सम्पर्क में थे। उनकी मरहूम पत्नि डाॅक्टर थी। सबसे बड़ी बात है कि 50 की उम्र में सर्वाेपरि होती है- कम्पनी या मैत्राी और डाॅ निशिल 50 के थे।
    घर में कोई बात करने वाला हो। उनकी छोटी-मोटी जरूरतों का ख्याल रखे। खाना घर का और समय पर मिला करे। और सबसे परे सुख-दुख या बिमारी में कोई उनका हाथ पकड़ कर बैठा रहे। और ढेर सारी बकबक करके उनका दिल लगाये रखे। अकेला घर सुनसान कमरे, उदास रातें। ना कोई बन्ध्न न कोई रंगीन सपने। वही रात को तारों भरे आकाश को आँखों में समेटते हुए आध्े जागते हुए सो जाओ। फिर दिन में वहीं रूटीन मरीज देखो, खाना खाओ, थोड़ा आराम करो, तैरने जाओ, खाना खाओ और सो जाओ।
    लोग मारीशस घूमने के लिये इतने पैसे खर्च करके आते है लेकिन डाॅ निशिल की जिन्दगी अस्पताल और तैरने में सिमट कर रह गई थी। तब जब कि वे अच्छी तरह जानते थे डाॅ शैबी की रंगीन मिजाजी के बारे में भी। रोज़ ही कोई दोस्त या कपल या अकेली नर्सो का भी उनके यहाँ आना जाना चलता रहता था। हर तीन-चार दिन में शराब के दौर चलते। हाँलाकि डाॅ शैबी पाँचों सामय की नमाज़ भी पढ़ते थे। उन्हे व्यायाम का भी बड़ा शौक था। घर पर भी डम्बल, वेट लिफ्रिटंग एक्सरसाइज, सायकल सभी कुछ था। उनकी उम्र भी कम थी सिर्फ 35 साल। जब कि डाॅ निशिल 50 के थे लेकिन दिखते 40 वर्ष के थे।    
    डाॅक्टर निशिल को अच्छी तरह याद है कि एक बार डाॅ शैबी ने उनकी जान बचाई थी। हुआ यों कि एक बार स्विमिंग करते-करते डाॅ निशिल समुन्दर में दूर निकल गये। समुन्दर की लहरें बहुत ही बड़ी-बड़ी थी हवा भी जोर से चल रही थी। ऐंसा लग रहा था जैसे समुन्दर में तूफान आया हो। समुन्दर हर चीज अपने मध्य भाग में खींच रहा हो। जाती समय तो डाॅ. निशिल चले गये। आराम से तैरते हुए। लेकिन आते समय बहुत दम लगाकर तैरने के बावजूद वे 1-2 फीट ही किनारे की तरफ बढ़ पाते। उनका सांस फूलने लगता। फिर वे रूक जाते थोड़ी देर के लिये और उन्हे लगता रूकते ही वे 3-4 फीट वापस मध्य समुन्दर की ओर खिंचे जा रहे हैैं और किनारा फिर दूर लगने लगता। हाँलाकि वे किनारे से बहुत अध्कि दूर न थे।
    हाँलाकि डाॅ निशिल एक अच्छे तैराक थे, परन्तु तैरते-तैरते वे थकते जा रहे थे। बड़ी मुश्किल से वे ‘हेल्प’ के लिय चिल्ला पाये। तब डाॅ शैबी ने आकर उनकी पीछे से किनारे की तरफ ध्केला था।
    बड़ी मुश्किल से किनारे पर पहुँचे और फिर डाॅ निशिल ने उल्टियाँ की थी। क्योंकि बहुत सारा पानी उनके पेट में चला गया था। उन्हे तब वह शेर याद आ रहा था’
    ऐ खुदा और नाखुदा ;शैतानद्ध के आसरों पर जीने वालो
    सफीना ;नावद्ध कल जहाँ डूबा था
        वहाँ खुदा भी था नाखुदा भी।
    कश्तियाँ यों भी डूब जाती हेंै।
        नाखुदा किसलिये डराते हंै।
    जब तेरे नयन मुस्कुराते है
        जीस्त ;ज़िन्दगीद्ध के ग़म भूल जाते है।
    थोड़ी ही देर में डाॅ निशिल डाॅ शैबी को गले लगकार ध्न्यवाद दे रहे थे। बोले दोस्त, आज तो तूने मेरी जान ही बचा ली। पाँच मिनट और न आता तो मैं गया था। डाॅ शैबी- ‘‘अरे चल यार, ऐंसे कुछ नहीं होता।’’ इससे पहले डाॅ. निशिल को कभी मौत के इतना पास होने का अहसास नहीं हुआ था। उन्हे अपनी पत्नि की याद आ रही थी।
    उसी दिन शाम को डाॅक्टर निशिल ने एक कविता लिखी....
यहाँ हर शख्स हर पल, हादसा होने से डरता है
खिलौना है जो मिट्टी का फना होने से डरता है

                       लेखक डाॅ0 विनोद कुमार भगत
                टाईराईटर नवरत्न सिंह फैंचरी मथुरा उत्तर प्रदेश



Prime Minister congratulates birthday of Navratan Singh

                                     Prime Minister congratulates birthday of Navratan Singh

Army jawans to jai hind