उत्साह का महत्व
उत्साह कार्य का प्राण
है। बिना उसके
कार्य करना जेल
की सजा भोगने
के समान है।
यदि उत्साहन नहीं
है तो मानो
हम काम को
अध्ुरा ही कर
रहे हैं। उसके
साथ हमारे मन
का योग नहीं
है। कार्य एक
बोझ बन गया
है और उसमें
रचना का, निर्माण
का कोई आनंद
नहीं, बल्कि बोझ
की विवस्था की
अनुभूति है।
किसी कार्य
में अपने को
भूल जाना, उसमें
पूर्णतः केन्द्रित हो जाना,
उसमें अपनी सम्पूर्ण
शक्तियों का विनियोग
ही उत्साह है।
जब तक हम
किसी कार्य को
अध्ुरे, शिथिल मन से,
अनमने होकर, उदासीन
होकर करते हैं,
तब तक मानो
उसे करते नहीं,
उल्टे उससे दूर
भागते हैं। ऐसा
काम करने से
लाभ तो कुछ
होता नहीं, परन्तु
थकावट अवश्य आ
जाती है। कार्य
करने में वास्तविक
आनंद तभी आ
सकता है, जब
आप उसी कार्य
से भरे हुए
हो, जब आपके
मन-प्राण में
वही वह हो,
जब आप उत्साह
से पूर्ण हों।
जब आप
उत्साह से पूर्ण
होकर काम करते
हैं तो विजय
और सफलता पहले
से ही आपके
साथ -साथ चलती
है। नेपोलियन की
सफलताओं का रहस्य
यही था कि
वह, न केवल
स्वंय उत्साह से
भरा होता था
वरन् अपने सैनिको
को भी अपने
उस उत्साह से
भर देता था।
उसके मन के
उत्साह की आग
सब में फैल
जाती थी।
उत्साह ने हारती
हुई सेनाओं को क्षण-भर में
विजय की ओर
मोड़ दिया है।
संसार के हर
स्थान पर हम
अनुभव कर सकते
हैं कि बिना
उत्साह के जीवन
सुना है, उसमें
कोई स्वाद नहीं,
कोई आनंद नहीं।
जिसमें उत्साह हैं, उसके
मुख पर सफलता
का गर्व है।
जिसमें उत्साह है, उसकी
आँखों में अजीव-सी खुमारी
है। जिसमें उत्साह
है, उसके भुजदण्ड
प्रत्येक अन्याय पर फड़क
उठते हैं। जिसमें
उत्साह है, उसके
मुख पर स्नेहपूरित
दीपक की ज्योति
है।
चाहे काम
छोटा हो या
बड़ा, चाहे वह
दुनिया के किसी
कोने में, किसी
प्रकार का हो,
उसमें सफलता तभी
मिल सकती है,
जब करेंगे टूटे
मन से नहीं,
निराश होकर नहीं,
विवस्था के साथ
नहीं।
अवसर
हमारा भविष्य पर्दे
से ढका हुआ
है। कोई नहीं
जानता कि कल
क्या होगा। इसे
न जानने के
कारण ही जीवन
का ईतना महत्व
है। इसे न
जानने के कारण
ही पौरूष और
साहस की ईतनी
आवश्यकता है।
बहुत से
लोग भाग्य के
भरोसे चुप बैठे
रहते हैं। वे
कहते हैं कि
जो होना होगा,
वहीं होगा। हमारी
सारी चेष्टाएँ बेकार
हैं। ऐसे लोग
भ्रमवश अपना जीवन
तो नष्ट करते
ही हैं, हमारे
जातीय चरित्रा को
भी अकर्मणयता और
पतन की ओर
ले जातें हैं।
ऐसा कोई
आदमी नहीं है,
जिसके जीवन में
कभी उन्नति का,
सफलता का अवसर
न आता हो,
परन्तु होता यह
है कि ज
बवह आता है,
अध्किाँश लोग हाथ
पर हाथ ध्रे
बैठे रह जाते
हैं। उसका लाभ
नहीं उठाते। देवता
द्वार पर आकर
लौट जाते है,
द्वार नहीं खुलता,
प्रियतम पास से
आकर गुजर जाते
हैं, और हमारी
आँखें उध्र नहीं
उठती, हमारे हाथ
स्वागत के लिए
नहीं उठते।
सच्च पूछिए
तो हर जगह
सफलता आपका स्वागत
करने के लिए
छिपी घूम रही
है, हर जगह
वह आपको पाने
के लिए बेचैन
है। कठिनाई बस
यह है कि
आपमें गर्मी नहीं,
आपमें बेचैनी नहीं,
आप खुद शिथिल
और निश्चल हैं।
एडिसन मामूली युवक
था। अखबार दोया
करता था। गाड़ियों
पर अखबरों के
बण्डल चढ़ाता था।
कभी-कभी देखता
कि इन बण्डलों
या थैलों में
जो रगड़ होती
है, उसमें एक
आवाज पैदा होती
है। यह आवाज
कोई नई नहीं
थी, न जाने
कब से लोग
उसे देखते-सुनते
आ रहे थे,
पर किसी ने
उस रहस्य के
पर्दे को उठाने
की कोशिश नहीं
की, घूँघट उठाकर
किसी ने उस
अनुपम के सौन्दर्य
को देखने का
प्रयत्न नहीं किया,
जो उसके पीछे
था। एक मामूली
बात थी, उस
मामूली बात के
पीछे यह युवक
पड़ गया और
ग्रामोंफोन का आविष्यकार
करके ही दम
लिया।
माईकेल फैराडे बचपन
में अखबार बेचा
करता था और
सात वर्ष की
उम्र से ही
जिल्दसाज की दुकान
में भी काम
करता था। ईन्साईक्लोपीडिया
की जिल्द बाँध्ते
समय उसकी निगाह
बिजली सम्बन्ध्ी एक
लेख पर पड़
गई। उसे उसने
पढ़ा, बार-बार
पढ़ा। ध्ीरे-ध्ीरे
छिप कर प्रयोग
करने लगा और
वही चारों ओर
का उपेक्षित बालक
फैराडे संसार का एक
प्रसि( वैज्ञानिक हो गया।
चेंपिन के ठीक
ही लिखा है
कि ‘‘ सर्वोत्तम मनुष्य
वे नहीं हैं,
जो अवसरों की
बाढ जोहा करते
हैं, परन्तु वे
हैं, जो अवसर
को अपना बनाकर
छोड़ते हैं।’ ऐसा
कोई व्यक्ति संसार
में नहीं है,
जिसके पास एक
बार भी भाग्योदय
का अवसर न
आता हो। सच्च
पूछो तो अवसर
हमारे ईर्द-गिर्द
छदम वेश में
मुँह पर नकाब
डाले घूम रहे
हैं, वे हर
जगह हैं। हमारे
जीवन में उनका
आना या ना
आना हमारे ऊपर
ही निर्भर है।
आत्मविश्वास
सफलता के साध्नों
में आत्मविश्वास का
एक प्रमुख व
विशेष स्थान हैं।
सफलता वास्तव में
मिलती उसे ही
है जिसको कि
अपने ऊपर विश्वास
होता है। जिसको
अपने ऊपर विश्वास
नहीं है, वह
जीवन के किसी
क्षेत्रा में सफलीभूत
नहीं हो सकता।
सफलता आत्मविश्वास का
परिणाम है या
यों कहिए कि
सफलता आत्मविश्वास की
चेरी है। यदि
हम महान पुरूषों
की जीवनियों पर
थोड़ा-सा दृष्टिपात
करें तो पायेंगे
कि प्रत्येक महापुरूष
में आत्मविश्वास था।
वह अपने आत्मविश्वास
पर जीवन प्रयन्त
दृढ़ रहा तथा
उस व्यक्ति के
महान बनने में
आत्मविश्वास का पुरा
हाथ रहा हैं
वास्तव में, यदि
उनमें आत्मविश्वास की
कमी होती तो
वे महान बन
ही नहीं सकते
थे, वे गन्तव्य
स्थान पर पहुँच
ही नहीं सकते
थे तथा जो
महान कार्य वे
अपने जीवन में
कर गये, वे
न कर पाते।
आत्मविश्वास की पुँजी
को यदि अन्य
पुँजियों के मुकाबले
में सर्वोपरि रखा
जाए तो भी
कोई अतिश्योक्ति न
होगी। क्योंकि अन्य
साध्न व समान
के होते हुए
भी यदि आत्मविश्वास
की पुँजी नहीं
होगी तो मनुष्य
अपने कार्य में
सफलीभूत नहीं हो
सकता। उसके दूसरी
तरफ यदि आत्मविश्वास
की पुँजी है
तथा अन्य साध्नों
में कुछ कमी
भी है, तो
वह कमी आत्मविश्वास
से पुरी हो
सकती है।
स्वामी विवेकानन्द के
पास अमेरिका जाने
से पूर्ण कितनेक
साध्न थे। देखा
जाए तो अमेरिका
जाना ही एक
बड़ी भारी समस्या
थी। फिर भी
किसी तरह से,
वहाँ जब पहुँच
गये तो शिकागो
सम्मेलन में सम्मिलित
होने के लिए,
उनके जब कागज-पत्रा सब खे
गये, तो उनके
पास शेष क्या
बचा था। शेष
था केवल आत्मविश्वास।
जिसके आधर पर
ही उन्हें सम्पूर्ण
जगत में ख्याति
प्राप्त करने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ। आगे
चल कर जब
सम्मेलन में सम्मिलित
होने की आज्ञा
मिल गई तथा
जब बोलने का
अवसर आया, तब
भी उन्होंने आत्मविश्वास
का ही सहारा
लिया।
आत्मविश्वास के लिये
मनुष्य में मनोबल
की परम आवश्यकता
है। यदि मनोबल
नहीं है तो
आत्मविश्वास का विकास
नहीं हो सकता
है। मनोबल से
ही आत्मविश्वास उत्पन्न
होता है और
ध्ीरे-ध्ीरे दृढ़
होता है।
हमारा चरित्रा हमारे
आत्मविश्वास के विकास
में अत्यन्त सहायक
होता है। आत्मविश्वास
के लिए चरित्राबल
एक प्रकार की
आधरशिला का कार्य
करती है। जिस
प्रकार से एक
कमजोर नींव पर
कोई बहुत बढ़िया
ईमारत नहीं टिक
सकती है, उसकी
प्रकार से चरित्राहीन
व्यक्ति में आत्मविश्वास
का विकास नहीं
हो सकता है।
सँकल्प और विश्वास अथवा दृढ़-निश्चय का जादु
मैं कह
चुका हूँ कि
दरवाजा खट खटाओ।
वह तुम्हारे लिए
खोला जायेगा। पर
यह दरवाजा तुम
खुद खोल सकते
हो। इसकी कुन्जी
तुम्हारे ही पास
है। उसे कहीं
बाहर खोजने नहीं
जाना है। यह
कुन्जी है-सँकल्प,
दृढ़-निश्चय, विश्वास।
विश्वास और सँकल्प
अथवा दृढ़-निश्चय
में जादू है।
यह मन को
शक्ति की तरंगो
से भर देता
है। यह मुर्दे
में जीवन का
संचार करता है।
यह जड़ को
चेतन बना देता
है। यह हमें
सब कुछ देने
की सामर्थय रखता
है। अपने मन
में विश्वास उत्पन्न
करो कि मैं
सफलता प्राप्त करके
ही रहूँगा और
सफलता तुम्हारे पाँव
चुमेगी। अपने मन
में सँकल्प करो,
दृढ़-निश्चय करो
कि मैं स्वास्थ्य
और शक्ति प्राप्त
करके ही रहूँगा।
बस स्वास्थ्य एवं
बल तुम्हारी ओर
दौड़े चले आएँगे।
तुम्हारा सँकल्प से भरा
हुआ मन, उस
बैटरी के समान
है जिसमें बिजली
भरी हुई है।
केवल उसको गतिमान
करके, उसका उपयोग
कर लेने की
जरूरत है। बटन
दबा दो, मोटर
चलने लगेगी। सँकल्प
मन के विद्युत
शक्ति यन्त्रा को
चलाने वाला बटन
है।
मैं नीरोग
नहीं हो सकता।
मैं यह कार्य
नहीं कर सकता।
मैं ऐसा करने
में असमर्थ हूँ।
मुझसे बुरी आदतें
नहीं छूट सकती।
मैं अपना स्वभाव
नहीं पल्ट सकता।
मैं चाहते हुए
भी क्रोध् नहीं
रोक सकता। मैं
दुर्गुणों से मुक्त
नहीं हो सकता।
मेरे भाग्य में
ऐसा ही लिखा
है। इस प्रकार
के विचार करने
वाला मनुष्य कभी
ऊपर नहीं उठ
सकता। इन्हीं विचारों
ने दुनिया को
नरक बना दिया
है और दिव्य
शक्तियों से भरे
इन्सान को जानवर
बना दिया है।
ऐसा विचार करके
मनुष्य ने प्रकाश
का द्वार अपने
हाथ से बन्द
कर दिया है
और सुर्योदय न
होने की शिकायत
कर रहा है।
मन को
दुर्बल बनाकर तुम जी
नहीं सकते। ‘‘करके
रहूँगा या मर
जाऊँगा’’। इस
विचार में बिजली
जैसी शक्ति भरी
हुई है। मैं
यह काम करूँगा,
‘‘अवश्य करूँगा।’’ इस विचार
में ही असीम
बल है। सँकल्प
और विश्वास की
दृढ़ता, जीवन को
शक्ति से भर
देती है जो
आदमी अपने को
मिट्टी समझता है, वह
सदा कुचला जायेगा।
जो अपने अन्दर
महत्ता देखता है, जिसे
विश्वास है कि
उसका जीवन खिलवाड़
के लिए नहीं,
वरन् महान उद्देश्यों
की सि(ी
के लिए है,
वही ऊँचा उठ
सकता है, वही
सफल हो सकता
है।
सफलता बड़ी मानिनी
है। उसे दौड़
कर दूसरों से
छीन लो। उसे
अपने अलिंगन में
ले लो। वह
वीरों और दृढ़-व्रतियों की खोज
में है। वरमाला
लिए वह उस
क्षण की राह
दे रही है।
जब तुम में
सँकल्प का, विश्वास
का, दृढ़ता का
उदय होगा और
तुम आगे बढ़कर
अपनी दृढ़-भुजाओं
में उसे समेट
लोगे। अन्ध्कार के
बादलों को चीरकर,
उनके ऊपर फैलती
चाँदनी या ऊषा
की मुस्कान के
समान, तुम्हारे बन
में सँकल्प एवं
विश्वास का उदय
होता है।
जब यह
आता है, मनुष्य
का चेहरा दमक
उठता है। पाँवों
में गति, छाती
में आँध्ी का
साहस, आँखों में
एक अद्भूत नशा,
हृदय में महान
आकाँक्षाएँ, मन सावन
के बादलों-सा
भरा-भरा लगता
है। चारों ओर
प्राण की लहर
उमड़ती है, जीवन
नाचता है, सफलताएँ
अभिनन्दन करती हंै,
अँध्ेरी जीवन-निशा
मध्ुर एवं प्राणदायिनी
हो जाती है।
स्वंय-स्वंय का स्वामी
व पथ-दर्शक
अथवा सहायक
एक पुरानी सड़ी-सी
कहावत है कि
ईश्वर उन्हीं की
मदद करता है,
जो स्वंय अपनी
मदद करते हैं।
पुरानी कहावत होने पर
भी, यह बात
आज भी उतनी
ही सही है,
जितनी उस समय
थी, जब कही
गई होगी। बल्कि
आज उससे भी
ज्यादा सही है।
क्योंकि सफलता वास्तव में
मिलती उसे ही
है जिसको कि
अपने ऊपर विश्वास
होता है। वो
जानता है कि
मैं क्या हूँ।
जो यह जानता
है कि मैं
क्या हूँ वो
यह भी जान
लेता है कि
मैं क्या हो
सकता हूँ। आत्मनिर्भरता
शक्ति का लक्ष्ण
है। एक बच्चे
को देखिए, जब वह
पहली बार बैठता
है, तो कितना
कमजोर होता है।
ज बवह पहली
बार घुटनों के
बल चलकर दौड़ता
है, तब पिछे
फिर-फिर कर
माँ को देखता
जाता है कि
माँ पकड़ने तो
नहीं आ रही
है और स्वतन्त्राता
का, स्वंय चलने
का जो आनँद
उसे मिल रहा
है, उसमें बाध्क
तो नहीं होगी।
जब पहली बा
रवह खड़ा होता
है, तो कैसी
किल्कारियाँ देता है,
मानो कहता हो,
आओ देखो, मैं
भी खड़ा हो
सकता हूँ। लड़खड़ाता
है, गिरता है,
फिर -फिर उठने
की कोशिश करता
है ओर अन्त
में उठ ही
जाता है। जीवन
के विकास का
यही स्वाभाविक क्रम
है। मनुष्य जितना
स्वतन्त्रा होगा, जितना ही
अपनी शक्ति पर
निर्भर करेगा, उतना ही
दूसरों के अवलम्ब
और दास्ता से
मुक्त होगा। जितना
ही परमुखा-पेक्षी,
गुलाम, दूसरों की कृपा
और दास्ता पर
निर्भर करेगा, उतना ही
दीन-हीन और
दुःखी होगा।
अपने आत्मनिर्भर
होने के लिए
अपने अन्दर विश्वास
और निरँतर साहस
की जरूरत होती
है। जो आदमी
काहिल है, जो
अपने प्रति अविश्वासी
है, वह उन्नति
नहीं कर सकता।
जो अपने को
मिट्टी समझता है, उसे
सोना बनाने वाला
आज तक संसार
में, कोई पैदा
नहीं हुआ। वह
तो मिट्टी होकर
ही रहेगा। सोना
तो वही बन
सकता है, जो
समझता है कि
मेरे अन्दर सोना
है, मेरे अन्दर
सम्भावनाएँ हैं, मेरे
अन्दर असीम शक्ति
छिपी पड़ी है
और मैं सफलता
प्राप्त करके ही
रहूँगा, कोई ताकत
मेरी गति को
नहीं रोक सकती
है।
अपने जीवित
होने का अनुभव
करो, अपनी अपराज्य
और अक्षर-शक्ति
का अनुभव करो,
अपने मन और
मस्तिष्क में सँकल्प
का प्रण करो
कि किसी के
ऊपर बोझ बनकर
नहीं रहोगे, किसी
के ऊपर आश्रित
बनकर नहीं रहोगे।
अपनी शक्ति से
जियोगे, अपनी शक्ति
से चलोगे, अपनी
शक्ति से अपने
को बनाओगे। चार
को उठाते हुए
चलो, चार को
जिलाते हुए चलो,
चार को खिलाते
हुए चलो, चार
को हँसाते हुए
चलो। अपने मन
और मस्तिष्क में
सँकल्प का व्रत
लो कि ऐसा
करोगे, पुकार जोर से
कहो कि ऐसा
ही होगा। मैं
अपने पाँव पर
खड़ा होऊँगा, स्वँय
अपना स्वामी बनूँगा,
स्वँय अपना पथ-दर्शक और सहायक
बनूँगा।
श्रम एवं अध्यव्वसाय का वरदान
अपनी प्रिय वस्तु को
पाने के लिए,
मनुष्य को निरन्तर
श्रम करना पड़ता
है। बिना कठोर
परिश्रम किये, अन्न नहीं
उत्पन्न होता। बिना परिश्रम
के वह अन्न्
भोजन बनकर, हमारे-तुम्हारे मुँह तक
नहीं पहुँच सकता।
यहाँ तक कि
परिश्रम और ध्ीरज
से खूब चबा-चबाकर खाये बिना,
वह हजम भी
नहीं होता फिर
भी ज्ञान के
गर्भ से अन्ध्े
आज के मानव
ने न जाने
क्यों परिश्रम से
बचने, उसके भागने
को ही सभ्य
जीवन की कसौटी
मान रखा है।
वह निरन्तर श्रम
से बचने के
यन्त्रों के आविष्यकार
में लगा हुआ
है। इससे, उसका
दिमाग बढ़ता जा
रहा है, परन्तु
उसका शरीर कमज़ोर
और क्षीण हुआ
जा रहा है।
परिश्रम से बचने
की भावना, मानव
जीवन का वह
अभिशाप है, जिसने
उसे झूठा, परावलम्ब
और कृत्रिम बना
दिया है।
परिश्रम जीवन का
आधर है। यह
वह चीज है,
जो हर मानव
को जन्म से
विरासत में मिली
है। शुरू से
वह शरीर से
काम लेना सीखता
है। इसी काम
लेने के कारण
उसका शरीर बढ़ता
और पुष्ट होता
है। शारीरिक श्रम,
जीवन की प्रथम
पुँजी है। इसी
लिए अपने शरीर
से काम लेना,
हमारा पहला कत्र्तव्य
है। हाथ-पाँव
की दृढ़ता हर
पग पर आवश्य
है। स्वाभाविक है
कि जिन अँगों
से हम काम
नहीं लेंगे, वे
कुछ दिनों में
मुरझा जाएँगे। अभ्यास
एवँ श्रम से
ही वे पुष्ट
रह सकते हैं
और अपना काम
तत्परता-पूर्वक रखने योग्य
बनते हैं।
परन्तु श्रम कुछ
शरीर तक ही
सीमित नहीं, मस्तिष्क
में, मन में,
जीवन के हर
क्षेत्रा में, हर
दिशा में वह
फैला हुआ है।
प्रत्येक मनुष्य में असाधरण
प्रतिभा नहीं होती,
परन्तु प्रत्येक में परिश्रम
करने और उसके
द्वारा अपने जीवन
को सफल कर
लेने की शक्ति
अवश्य होती है।
एक मजदूर, एक
पूँजीपति, एक छात्रा,
एक अध्यापक, एक
लेखक, एक विचारक,
एक सुधरक तथा
राजनीतिज्ञ सभी के
लिए श्रम आमोघ
वरदान की भाँति
है।
जरा हिसाब
लगाकर देखिए कि
जो क्लर्क अपनी
गरीबी का रोना-रोकर, अपना समय
व्यर्थ बिता देता
है। यदि वह
केवल एक घण्टा
प्रतिदिन किसी काम
को करने का
निश्चय कर ले,
तो जीवन-भर
में हजारों रूपये
एकत्रा कर सकता
है। यदि विद्यार्थी
एक घण्टा पहले
उठकर पढ़ना शुरू
कर दे, तो
साल भर में
न जाने कितनी
नई बातें सीख
सकता है। यदि
कोई लेखक सिर्फ
एक पन्ना रोज
लिखे तो प्रतिवर्ष
एक पुस्तक तो
लिख ही सकता
है। आवश्यकता है
केवल इस बात
की कि शरीर,
मन या
बु(ि की
जो शक्ति व्यर्थ
जा रही है,
या हम में
सोई हुई पड़ी
है, उसे निरन्तर
के श्रम एवँ
अध्यव्वसाय से जगा
दो। हम देखेंगे
कि कैसा जादू
हो गया है
हमारे जीवन में।